समाजीकरण को प्रभावित करने वाले कारक (FACTORS INFLUENCING AMONG OF SOCIALIZATION)
समाजीकरण की प्रक्रिया जन्म से मृत्युपर्यन्त अथवा आजीवन बिना रुके चलती रहती है। इस प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले कुछ कारक अग्र प्रकार हैं
1. वशानुक्रम
2 शारीरिक तथा मानसिक विकास
3 परिवार
4 संवेगात्मक विकास
5 पालन-पोषण
6. आर्थिक स्थिति
7. विद्यालय
8. शिक्षकों का दृष्टिकोण
9 खेलकूद तथा अन्य पाठ्य सहगामी क्रियायें
10. समूह या टोली
11. सामाजिक व्यवस्था तथा संस्कृति
12. जनसंचार के साधन आदि
13. लिंग
1. वंशानुक्रम (Heredity) सामाजिकता को प्रभावित करने, उसकी दशा और दिशा के निर्धारण में कुछ कारक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। स्किनर तथा हैरीमैन के शब्दों में, "वातावरण और संगठित साधनों के कुछहै ऐसे विशेष कारक हैं, जिनका बालक के सामाजिकहै विकास की दशा पर निश्चित और विशिष्ट प्रभाव पड़ता है।"
वंशानुक्रम इन्हीं कारकों में से एक है। क्रो एवं क्रो के मतानुसार शिशु की पहली मुस्कान या उनका कोई विशिष्ट व्यवहार वंशानुक्रम से उत्पन्न होने वाला हो सकता है।"
2. शारीरिक तथा मानसिक विकास (Physical and Mental Development)–सामाजिकता के विकास को प्रभावित करने में बालक का शारीरिक और मानसिक विकास महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। स्वस्थ तथा अधिक विकसित मस्तिष्क वाले बालक का सामाजिक विकास अस्वस्थ और कम विकसित मस्तिष्क वाले बालक की अपेक्षा अधिक होता है। सोरेन्सन (Sorenson) के मतानुसार जिस प्रकार उत्तम शारीरिक और मानसिक विकासहै साधारणतया सामाजिक परिपक्वता में योगदान देता है, उसी प्रकारहै कम शारीरिक औरहै मानसिक विकास बालक की सामाजिकता कीहै गति को मन्द कर देता है।"
3. परिवार (Family) समाजीकरण की प्रथम पाठशाला बालक का परिवार होता है। बालक जब परिवार के बड़े लोगों को जैसा आचरण और व्यवहार करते देखता है तो उसी प्रकार का वह अपने से छोटे और बड़ों के साथ करता है। एलिस क़ो के अनुसार बालक का विश्वास होता कि यदि वह बड़े लोगों की भाँति व्यवहार नहीं करेगा तो वह किसी-न-किसी प्रकार के उपहास लक्ष्य बनेगा।"
4. संवेगात्मक विकास बालक के सामाजिक विकास में सवेगात्मक विकास का महत्व होता है। प्रेम तथा विनोदपूर्ण बालकों का समाजीकरण शीघ्र होता है वहीं क्रोध तथा ईर्ष्या करने वाले बालकों का समाजीकरण मन्दहै गति से होता है। क्रो एवंहै क्रो के अनुसार- "संवेगात्मक और सामाजिकहै विकास साथ-साथ चलते हैं।"
5. पालन-पोषण बालकों का पालन पोषण माता-पिता द्वारा किस प्रकार किया जाता है.. इसका प्रभाव बालकों की सामाजिकता पर पड़ता है। जिन बालकों को बिना किसी भेद-भाव के पाला जाता है उनका तथा जिन बालकों को समानता के आधार पर पाला जाता है उनकी सामाजिकता में अन्तर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
6. आर्थिक स्थिति परिवार की आर्थिक स्थिति का बालको की सामाजिकता पर प्रभाव पड़ता है। उच्च तथा धनी वर्ग के बच्चे अच्छे पास-पड़ोस में रहते हैं, वहीं निर्धन माता-पिता की संतानों को अच्छा पास-पड़ोस नहीं मिलता है, न ही वे अच्छे व्यक्तियों छात्र-छात्राओं से मिल पाते हैं जिससे उनका सामाजिक विकास प्रभावित होता है।
7. विद्यालय बालक के सामाजिक विकास के दृष्टिकोण से परिवार के पश्चात् विद्यालय का स्थान सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। यदि विद्यालय का वातावरण जनतंत्रीय है तो बालक का सामाजिक विकास अविराम गति से उत्तम रूप ग्रहण करता चला जाता है। इसके विपरीत यदि विद्यालय का वातावरण एकतंत्रीय (Autocratic) सिद्धान्तों के अनुसार दण्ड और दमन पर आधारित है तो बालक का सामाजिक विकास कुण्ठित हो जाता है।
8. शिक्षकों का दृष्टिकोण बालक के सामाजिक विकास पर शिक्षकों के दृष्टिकोण का प्रभाव पड़ता है। यदि शिक्षक शान्त, शिष्ट तथा सहयोगी है, तो उसके छात्र भी उसी के समान व्यवहार करते हैं। इसके विपरीत, यदि शिक्षक अशिष्ट, क्रोधी और असहयोगी है तो उसके विद्यार्थी भी उसी के समान बन जाते है। योग्य शिक्षकों का सम्पर्क बालक के सामाजिक विकास पर निश्चय ही प्रभाव डालत है। स्ट्रेंग ने लिखा है वास्तविक सामाजिक ग्रहणशीलता और योग्यता वाले शिक्षकों से दैनिक सम्पर्क बालक के सामाजिक विकास में अतिशय योग देता है।"
9. खेलकूद तथा अन्य पाठ्य सहगामी क्रियायें बालक की सामाजिकता के विकास में खेलकूद तथा विद्यालय में आयोजित की जाने वाली पाठ्यसहगामी क्रियाओं का अत्यधिक महत्व है। इसके द्वारा बालकों में साथ-साथ मिलकर कार्य करने, सामूहिकता की भावना सहयोग आदि का विकास होता है। स्किनर तथा हेरीमैन के शब्दानुसार"खेलहै का मैदान बालक का निर्माण स्थल है। यहाँ उसे प्रदान कियेहै जाने वाले सामाजिक औरहै यांत्रिक उपकरण उसके सामाजिक विकास को निश्चितहै करने में सहायता देते है।"
10. समूह या टोली- समूह या टोली के सदस्य के रूप में बालक इतना व्यवहारकुशल हो जाता है कि समाज में प्रवेश करने के पश्चात् उसे किसी प्रकार की कठिनाई का अनुभव नहीं होता है। हरलॉक के शब्दानुसार, समूह के प्रभावों के कारण बालक सामाजिक व्यवहार का ऐसा महत्त्वपूर्ण प्रशिक्षण प्राप्त करता है जैसा प्रौद समाज द्वारा निर्धारित की गयी दशाओं में उतनी सफलता से प्राप्त नहीं किया जा सकता है।"
11. सामाजिक व्यवस्था तथा संस्कृति सामाजिक व्यवस्था अर्थात् समाज के कार्य, आदर्श, प्रतिमान जाति, धर्म, वर्ग आदि है जिसके द्वारा समाज की व्यवस्था संचालित होती है। संस्कृति के 94। लिंग, विद्यालय एवं समाजअन्तर्गत खान-पान, रहन-सहन आदि आते हैं। सामाजिक व्यवस्था के अन्तर्गत जाति, वर्ग, धर्म आदि आते हैं और इनका सामाजिकता में संक्षिप्त निरूपण निम्न प्रकार है:-
(i) जाति–सामाजिक व्यवस्था का अभिन्न अंग जाति है। जाति व्यवस्था कर्म पर आधारित न होकर जन्म पर आधारित होती है। विभिन्न जातियाँ अपनी संस्कृति और सामाजिक धरोहरों के विकास के लिए समय-समय पर उत्सवों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं, जिनमें बालक सम्मिलित होकर सामाजिकता का पाठ सीखते हैं। जाति विशेष का बालक-बालिकाओं के प्रति दृष्टिकोण कैसा है इस बात का भी प्रभाव उनकी सामाजिकता पर पड़ता है। भेद-भाव के कारण बालिकाओं को उत्सवों, मेलो तथा विविध कार्यक्रमों में सक्रिय रूप से भाग लेने हेतु निषिद्ध किया जाता है। इसके साथ ही साथ जाति विशेष में पर्दा प्रथा, बाल विवाह इत्यादि कुरीतियों के कारण भी बालक और बालिकाओं के समाजीकरण में अन्तर दिखता है।
(ii) वर्ग वर्ग अर्थात् क्लास जो किसी व्यक्ति की समाज में स्थिति और प्रतिष्ठा का आधार होता है। वर्ग के अन्तर्गत आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, व्यावसायिक आदि व्यक्तियो के वर्ग आते हैं। वर्ग में जाति तथा धर्म का भेद-भाव नहीं किया जाता है, परन्तु वर्ग में आर्थिक स्थितियों का प्रतिष्ठा के आधार पर वर्ग निर्माण होता है। वर्ग अपने समूहों में समय-समय पर विविध आयोजन, उत्सव मेले इत्यादि आयोजित करता है, जिसमें उस वर्ग के बालक-बालिकायें भी सम्मिलित होकर सामाजिकता का पाठ पढ़ते हैं। वर्ग में स्त्री-पुरुषों के मध्य प्राय भेद-भाव न होकर खुलापन होता है जिसका प्रभाव भी बालकों की सामाजिकता पर पड़ता है।
(iii) धर्म-भारतीय सामाजिक व्यवस्था में धर्म का स्थान महत्वपूर्ण है। बहुधार्मिक भारत में सभी धर्मों के अपने-अपने त्योहार धार्मिक क्रिया-कलाप तथा आदर्श मूल्य और शिक्षायें होती है। जिनके लिए मन्दिरों, मस्जिदों, गिरिजाघरों आदि में धार्मिक आयोजन किये जाते हैं। घर, समाज में भी धार्मिक आयोजन आयोजित किये जाते हैं, जिनमें बालक-बालिकायें सम्मिलित होकर सामाजिकता सीखते हैं। धर्मों में बालक-बालिकाओं के प्रति धार्मिक मान्यताओं और परम्पराओं के आधार पर भेद-भाव किया जाता है जिसके कारण बालिकायें प्रारम्भ से ही इन धार्मिक क्रिया-कलापों से विमुख हो जाती है।
(iv) संस्कृति संस्कृति शब्द में सम् उपसर्गपूर्वक 'कृ' धातु तथा क्तिन् प्रत्यय से निष्पन्न है। जिससे तात्पर्य है—'शोधन या परिष्कृत करना। अंग्रेजी में संस्कृति के लिए 'कल्चर' (Culture) शब्द का प्रयोग किया जाता है, जो लैटिन के कल्ट्रा (Cultra) से निष्पन्न है, जिससे तात्पर्य है- खेती, मस्तिष्क का ज्ञानवर्द्धन तथा शिष्टता आदि। इस प्रकार संस्कृति से तात्पर्य है नवीन सृजन, सवर्द्धन तथा व्यवहार के प्रतिमानों का विकास मैकाइवर तथा पेज शब्दों में "यह मूल्यो, शैलियों, भावात्मक लगावों तथा बौद्धिक अभियानों का क्षेत्र है। इस प्रकार संस्कृति सभ्यता का बिल्कुल प्रतिवाद है। वह हमारे रहने तथा सोचने के ढंगों में दैनिक क्रिया-कलापों में, कला में, साहित्य में धर्म में, मनोरंजन और सुखोपभोग में हमारी प्रकृति की अभिव्यक्ति है।" इस प्रकार सांस्कृतिक हस्तान्तरण की प्रक्रिया द्वारा भी बालक और बालिकाओं में सामाजिकता की भावना का विकास होता है।
12. जनसंचार के साधन आदि वर्तमान में जनसंचार के साधनों का महत्व अत्यधिक है। जनसंचार के साधनों में रेडियो, टेलीविजन, सिनेमा, समाचार पत्र पत्रिकायें तथा इण्टरनेट आदि लिंग तथा सामाजिक रचना आते है। इन साधनों की समाजीकरण में भूमिका अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। सांस्कृतिक कैम्प, एन. एस. एस. स्काउट एण्ड गाइडिंग, एन सी. सी. इत्यादि क्रिया-कलापों के आयोजन द्वारा सामाजिकता का विकास होता है।
13. लिंग लिंग के आधार पर क्या समाजीकरण की प्रक्रिया प्रभावित होती है ? इस प्रश्न का उत्तर यदि हम अपने घर परिवार और समाज में ढूँढ़ते हैं तो उत्तर निश्चित रूप से हाँ में प्राप्त होता है। लिंग के आधार पर सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, खान-पान, पोषण, रहन-सहन तथा शिक्षा आदि में भेद-भाव किया जाता है, जिससे बालिकाओं के समाजीकरण पर प्रभाव पड़ता है। बालिकाओं के साथ परिवार, समाज विद्यालय, धार्मिक संस्थाओं और सार्वजनिक स्थलों पर जो उपेक्षा और दोयम दर्जे का भाव रखा जाता है उससे उनकी सामाजिकता तमाम प्रकार के बन्धनों में बँध जाती है। परिवार में लैंगिक भेद-भावों के कारण बालिकाओं की समुचित शिक्षा, खान-पान, पोषण, पारिवारिक उत्तरदायित्वों कार्य वितरण आदि में भेद-भाव किया जाता है। बालको की अपेक्षा बालिकाओं से कार्य अधिक कराया जाता है। प्रारम्भ से ही उन्हें उत्तरदायित्वों से बाँध दिया जाता है। बालकों की अपेक्षा सस्ती शिक्षा या शिक्षा की आवश्यकता ही नहीं समझी जाती है. जबकि बालकों हेतु अच्छे वस्त्र, भोजन, मनोरंजन, खेलकूद के साधन और अच्छी शिक्षा की व्यवस्था की जाती है। बालक को प्रारम्भ से ही बालिकाओं की अपेक्षा महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता है, जिससे बालिकाये स्वयं को हीन, उपेक्षित और बालकों की अपेक्षा कमतर समझने लगती हैं।
समाजीकरण में लिंग की भूमिका विद्यालयों में भी देखी जा सकती है। विद्यालय में कार्यरत शिक्षक-शिक्षिकायें भी समाज से जाते हैं और उनकी लिंगीय अवधारणा भेद-भावपूर्ण और संकुचित होती है। अतः विद्यालय के वातावरण में खेलकूद पाठ्य सहगामी क्रियाओं आदि से बालिकों की भूमिका को ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता है। उन्हें उनके लिंग के आधार पर कुछ कार्यों से वंचित कर दिया जाता है, जिससे उनका शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक आदि का विकास नहीं हो पाता है, जिसका प्रभाव उनके समाजीकरण पर पड़ता है।
भारतीय समाज पितृसत्तात्मक और पुरुष प्रधान रहा है जिसके कारण सामाजिक, धार्मिक क्रियाकलापों में 'दूधो नहाओ फूलो फलो पुत्र नरक से तारता है, पुत्र ही अन्तिम संस्कार और पिता का श्राद्ध करता है। इस कारण बालिकाओं को इन कार्यों हेतु निर्योग्य समझा जाता है जिसके कारण समाज में वे दोयम दर्जे की बनकर रह जाती हैं और उनका समाजीकरण संकुचित होता है। भारतीय राजनीति अर्थजगत में स्त्रियों की भागीदारी भले ही हो, फिर भी जिस अनुपात में होनी चाहिए उस अनुपात में नहीं है। राजनीति और अर्थजगत की परिचर्याओं से स्त्रियों को दूर रखा जाता है जिससे उनका समाजीकरण इन दिशाओं में नहीं हो पाता है। सामाजिक रीति-रिवाजों, मान्यताओं और जाति आदि में भेद के कारण स्त्रियों को हाशिये पर रखा जाता है। सभी रीति-रिवाजों, प्रथाओं और मान्यताओं को मानने का उत्तरदायित्व स्त्रियों पर होता है। वे इस जंजाल में फंसी रह जाती है और समाज के नवीन आयातित रंगो से परिचित नहीं हो पाती है। विवाह के पश्चात लड़की को ही सारे रीति-रिवाज, घर-गृहस्थी की जिम्मेदारी, बच्चों के लालन-पालन तथा सामाजिक कुप्रथाओं, अशिक्षा, बाल विवाह, पर्दा प्रथा आदि का शिकार होना पड़ता है, जिससे उनकी सामाजिकता के विकास में बाधा उत्पन्न होती है। वे कूपमण्डूक बनकर रह जाती है। जातिगत आधार पर भी स्त्रियों के लिए कुछ विशिष्ट सीमायें निर्धारित की गयी है, जैसे 96। लिंग, विद्यालय एवं समाज बचपन में ही विवाह, पर्दा प्रथा, सहशिक्षा में न पढ़ाना शिक्षा आदि की समुचित व्यवस्था न करना इत्यादि। इस प्रकार जाति विशेष के नियमों के अनुसार भी स्त्रियों का समाजीकरण संकुचित और बाधित होता है।
लिंग के आधार पर बालिकाओं को सामाजिक क्रिया-कलापों लोगों से मिलने अभिव्यक्ति करने अपनी इच्छानुसार स्वतन्त्रता का उपभोग करने निर्णय लेने, सार्वजनिक स्थलों पर जाने इत्यादि की मनाही होती है। इतना ही नहीं, उनके खान-पान, रहन-सहन तथा शिक्षा और परवरिश में भी भेद-भाव किया जाता है। ऐसी स्थिति में किस प्रकार बालिकाओं का समाजीकरण व्यापक और समुचित हो सकता है, फिर भी जब इन्हें अवसर मिलता है तो ये घर, परिवार के साथ-साथ राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर कुशलतापूर्वक संवाद स्थापित करने, प्रबन्धन करने के कार्यों का सम्पादन बखूबी महिलाओं द्वारा किया जा रहा है।
निष्कर्ष (CONCLUSION)
लिंग की भूमिका का महत्व सामाजिक रचना में अत्यधिक है, क्योंकि समाज की स्थापना के लिए स्त्री-पुरुष का होना आवश्यक है। समाज किस प्रकार का है अर्थात् प्रगतिशील या परम्परागत, मुक्त या बन्द यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि वहाँ निवास करने वालों की सामाजिक मान्यतायें लिंग के विषय में कैसी हैं। लिंगी आधार पर व्यक्तियों की उन्नति तथा दशा पर समाज का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। बन्द और परम्परागत समाजों में लिंगीय कुप्रथायें, असमानतायें व्याप्त होती हैं, लिंगीय भेद-भाव किये जाते हैं जबकि मुक्त और प्रगतिशील समाजो में स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त होते हैं। यहाँ स्त्रियाँ अपनी स्वतन्त्रता और अधिकारों का उपभोग करते हुए प्रत्येक क्षेत्र में परचम लहराती है। समाजीकरण की प्रक्रिया की व्यापकता और संकुचित होने में भी लिंग का प्रभाव दिखाई देता है। स्त्रियों का समाजीकरण पुरुषों की अपेक्षा हीन, संकुचित और निम्नतर होता है, क्योंकि उनके प्रति परिवार विद्यालय, जाति, धर्म आदि का दृष्टिकोण विभेदात्मक होता है वहीं बालकों को समाजीकरण के लिए व्यापक क्षेत्र और पर्याप्त अवसर मिलते हैं, जिससे उनमें श्रेष्ठता की भावना प्रारम्भ से ही घर कर जाती है। सामाजिक रचना और सामाजिकता में लिंग की भूमिका महत्वपूर्ण है, परन्तु इसके स्वरूप को परिवर्तित करके विभेदात्मक की जगह समतामूल, पुरुष प्रधान की जगह समन्वय केन्द्रित कर स्वस्थ समाज का निर्माण किया जाना चाहिए।
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