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संज्ञानात्मक विकास Cognitive Development


संज्ञान का अर्थ और अधिगम में इसकी भूमिका (MEANING OF COGNITION AND ITS ROLE IN LEARNING)

मनोवैज्ञानिक अवधारणा के अनुसार संज्ञान वह मानसिक क्रिया या प्रक्रिया है, जिसके द्वारा ज्ञानार्जन होता है, जिसमें ज्ञान या जानकारी, प्रत्यक्षीकरण, अंतः प्रज्ञा (intution) और तर्क सम्मिलित होते हैं। संज्ञान (cognition) शब्द का प्रयोग अक्सर अधिगम और चिन्तन को व्याख्यायित करने के लिए प्रयुक्त किया जाता है। कॉगनिशन शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के कॉगनोसियर (Cognoscere) शब्द से हुई है, जिसका अर्थ है-'जानना या ज्ञान' (getting to know or knowledge)। यह शब्द पन्द्रहवीं शताब्दी में ही प्रयोग में आने लगा था, परन्तु संज्ञानात्मक प्रक्रिया पर सबसे अधिक ध्यान तब गया जब महान दार्शनिक अरस्तु (Aristole) ने संज्ञानात्मक क्षेत्रों (cognitive areas) पर ध्यान देना शुरू किया जिसमें स्मृति ( memory), प्रत्यक्षीकरण (perception) व मानसिक प्रतिरूप (mental imagery) सम्मिलित होते हैं।

संज्ञान शब्द का प्रयोग विभिन्न क्षेत्रों में किया जाता है। विज्ञान के क्षेत्र में, संज्ञान सभी मानसिक योग्यताओं का समूह है और ज्ञान से सम्बन्धित क्रिया करता है; जैसे- अवधान (attention), स्मृति और कार्य स्मृति ( memory and working memory), निर्णय और मूल्यांकन (judgement and evaluation), तर्क और गणना (reasoning and computation), समस्या समाधान और निर्णय (problem solving and decision making), अवबोध एवं भाषा निर्माण (comprehension and production of language) आदि। संज्ञान के विविध स्वरूप होते हैं, जैसे

• चेतन और अचेतन (Conscious and unconscious) 

• मूर्त और अमूर्त (Concrete and abstract)

• अंतः प्रज्ञात्यात्मक और संकल्पनात्मक (intutive and conceptual) 

संज्ञानात्मक प्रक्रिया में अस्तित्ववान ज्ञान (existing knowledge) के आधार पर नये ज्ञान को उत्पन्न करता है।
भिन्न-भिन्न परिप्रेक्ष्य में संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं का विश्लेषण भिन्न-भिन्न तरह से किया जाता है; जैसे—भाषा विज्ञान (linguistic), स्नायु विज्ञान (neuroscience), मनोरोग अध्ययन (psychiatry), शिक्षाशास्त्र (education), दर्शनशास्त्र (philosophy), मानवशास्त्र (anthropology), जीव विज्ञान (biology) और कम्प्यूटर विज्ञान (computer science) आदि ।

संज्ञान की परिभाषाएँ (DEFINITIONS OF COGNITION)

• ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार संज्ञान की परिभाषा है-"विचार, अनुभव और इन्द्रियों के माध्यम से ज्ञान अर्जित करने और अवबोध की मानसिक क्रिया या प्रक्रियायें। "

The mental action of processes of acquiring knowledge and understanding through thought, experience and the senses. " -Definition of Cognition according to Oxford Dictionaries

• वेबस्टर शब्दकोष के अनुसार-"जानकारी, ज्ञान और प्रत्यक्षीकरण की क्रिया संज्ञान है। "

"Cognition is the act of knowing, knowledge and perception." - Webster Dictionary • 

"संज्ञान' शब्द उन सभी प्रक्रियाओं का सन्दर्भ देता है जिनके द्वारा इन्द्रिय क्रियायें रूपान्तरित मात्रा में कम, व्याख्यायित, एकत्रित, खोई शक्ति को अर्जित तथा प्रयुक्त होती है। " -नीसर "The term 'cognition' refers to all processes by which the sensory input is transformed, reduced, elaborated, stored, recovered and used." -Neisser

संज्ञान की कोई निश्चित या निर्धारित परिभाषा नहीं हो सकती। संज्ञानात्मक प्रक्रिया की व्याख्या करने के लिए, संज्ञानात्मक प्रक्रिया की जटिलता को समझना आवश्यक है। संज्ञानात्मक प्रक्रिया को समझने के लिए सर्वप्रथम यह समझना आवश्यक है कि सामान्य दृष्टिकोण से व्यक्ति संसार का प्रत्यक्षीकरण कैसे करता है। हर क्षण व्यक्ति के चारों ओर सूचनाओं का जमघट होता है जिनके आधार पर वह निर्णय लेकर वातावरण के सम्बन्ध में अपनी धारणा बनाता है। अपनी इन्द्रियों के द्वारा आस-पास की सूचनाओं को ग्रहण करना और उन्हें निष्कर्षों में बदलना या क्रिया करना संज्ञान के द्वारा ही सम्भव है।

आयु और अनुभव के आधार पर बालक इस दुनिया को समझने के लिए विकसित होता जाता है, इसे संज्ञानात्मक विकास (Cognitive development) कहा जाता है। संज्ञानात्मक विकास समझने की यही प्रक्रिया है, जिसमें बालक की ज्ञान अर्जित करने की जन्मजात वह योग्यता सम्मिलित होती है जो मस्तिष्क की संरचना तथा क्रियाओं से सम्बन्धित होती है। अतः संज्ञानात्मक विकास को सर्वोत्तम रूप से इस प्रकार व्याख्यायित किया जा सकता है

“मस्तिष्क की चिन्तन और संगठन प्रणालियों का विकास संज्ञानात्मक विकास है, जिसमें भाषा, मानसिक प्रतिबिम्ब, चिन्तन, तर्क समस्या समाधान और स्मृति विकस सम्मिलित होते हैं। "

"Best definition of cognitive development is the development of the thinking and 'organizing systems' of the brain. It involves language, mental imagery, thinking, reasoning. problem solving and memory development."

अधिगम में संज्ञान की भूमिका (ROLE OF COGNITION IN LEARNING)

संज्ञान और अधिगम दोनों ही 'शिक्षा मनोविज्ञान' के अति महत्वपूर्ण केन्द्रीय प्रत्यय हैं। एक तरह से व्यक्ति अपने दैनिक जीवन में कुछ भी सीखने में संज्ञान का प्रयोग करता है। शिक्षण अधिगम की प्रक्रिया को मजबूत बनाने के लिए अधिगम में संज्ञान की भूमिका को समझना आवश्यक है। अधिगम 1 में संज्ञान की भूमिका को निम्न बिन्दुओं से स्पष्ट किया जा सकता है

1. बालक को अधिगम प्रक्रिया की सफलता पर उसका विकास निर्भर होता है। व्यापक रूप से अधिगम को ' व्यवहार में परिवर्तन' से व्याख्यायित किया जाता है, इस बात पर मुख्य रूप से ध्यान दिया जाता है कि बालक क्या सीखता है और कैसे सीखता है अर्थात् वह कैसे और क्या ग्रहण करता है, उसकी वृद्धि और विकास कैसे हो रहा है। ये ग्राह्यता, वृद्धि एवं विकास बालक के अन्दर से आता है। सभी आठ संज्ञानात्मक प्रक्रियायें अधिगम में महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाती हैं। बालक किसी अधिगम-परिस्थिति {learning situations) में प्रवेश करता है तो उसके पास पहले के कुछ अनुभव होते हैं, इन अनुभवों और पूर्व बोध-ज्ञान का प्रयोग कर बालक को कठिन से कठिन प्रकरण समझाया सकता है।

2. किसी भी नई सूचना को ग्रहण करने पर, संज्ञान की सहायता से व्यक्ति उस सूचना को प्रयोग में लाने का प्रयास करता है। उदाहरणार्थ, कोई पालतू बिल्ली घर के किसी फर्नीचर के किसी भाग को खरोंचने लगे, अगर फर्नीचर के उस भाग पर कोई अप्रिय द्रव छिड़क दिया जाए (जिसे बिल्ली पसन्द न करती हो), तो बिल्ली जल्दी ही समझ जाएगी कि जिस भाग को वह खरोंचना पसन्द करती थी, वहाँ से अप्रिय गन्ध आती है, तब उसकी संज्ञानात्मक प्रक्रिया उसे खरोंचने से रोक देगी। इसी प्रकार सुखद अनुभव प्राप्त करने पर बालक की सीखने की आकांक्षा और योग्यता दोनों का विकास होता है और अप्रिय अनुभवों से बालक उस कार्य को त्याग देता है।

3. अधिगम और संज्ञान सभी के मस्तिष्क में होता है, परन्तु कभी-कभी दोनों को सम्बद्ध करने के लिए कोचिंग की आवश्यकता होती है। अध्यापक बालक को अक्षर का उच्चारण सिखाता है, लिखना सिखाता है। जैसे-जैसे विद्यार्थी प्रगति करता जाता है वह लम्बे और जटिल शब्दों को सीखता है और लिखता है, फिर धीरे-धीरे वाक्य बनाने और लिखने लगता है।

4. कुछ संज्ञानात्मक योग्यताएँ अधिगम के परिप्रेक्ष्य में अत्यन्त महत्वपूर्ण होती हैं। जी. ए. मिलर (1956) के अनुसार क्रियाशील स्मृति (Working memory) सीमित मात्रा में सूचनाओं को, थोड़े समय तक सक्रिय रखती है। क्रियाशील स्मृति की अपर्याप्त मात्रा बहुत से कार्यों के निष्पादन को प्रभावित करती है; जैसे-सामान्य भाषा का प्रयोग (natural language use), कौशल अर्जन (skill aquisition) आदि।

अधिगम के परिप्रेक्ष्य में तर्क की योग्यता विशेष रूप से अपना महत्व रखती है। बालक के सामने कोई जटिल समस्या उत्पन्न होती है, तो वह अपने पिछले अनुभवों के आधार पर समाधान के लिए परिकल्पना बनाता है। जिन बालकों में आगमन तर्क कौशल (inductive reasoning skill) अच्छा होता है, वे अतीत के नमूने/पैटर्न (pattern) का सामान्यीकरण करने में सफल हो जाते हैं। इससे क्रियाशील स्मृति पर दबाव कम हो जाता है और अधिगम प्रक्रिया में दक्षता बढ़ जाती है।

संज्ञानात्मक विकास (COGNITIVE DEVELOPMENT)

‘संज्ञानात्मक विकास' अध्यापकों के लिए अति महत्वपूर्ण क्षेत्र है। अधिगम और संज्ञान एक-दूसरे के पूरक हैं। अधिगम को ज्ञान व कौशल के अर्जन की प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया जाता है, इस ज्ञानार्जन व कौशल-अर्जन की प्रक्रिया में संज्ञान निहित होता है। संज्ञान में संवेदन (sensation), प्रत्यक्षण (perception), कल्पना (imagery), धारणा (reterition), पुनमैरण (recall), समस्या समाधान (problem solving), चिन्तन (thinking), तर्क (reasoning) आदि मानसिक क्रियायें सम्मिलित होती हैं। पठन-पाठन का स्तर अनुरूप होने पर बालकों के संज्ञानात्मक विकास को गति और दिशा प्राप्त होती है। प्रत्येक अध्यापक को बालक के संज्ञानात्मक विकास का ज्ञान होना चाहिए।

संज्ञानात्मक विकास का अर्थ (MEANING OF COGNITIVE DEVELOPMENT)

संज्ञानात्मक विकास का पहला सम्बन्ध उन तरीकों से होता है जिनसे बालक की आन्तरिक मानसिक शक्तियाँ अर्जित, विकसित और अवसर के अनुसार प्रयुक्त होती हैं, जैसे- समस्या समाधान, स्मृति और भाषा शैशवावस्था में सीखने, याद करने और सूचनाओं को प्रतीक के रूप में प्रयुक्त करने की क्षमता बहुत सामान्य स्तर पर होती है, वे छोटे-छोटे संज्ञानात्मक कार्य करने में सफल होते हैं, जैसे-सजीव और निर्जीव में अन्तर करना, कुछ वस्तुओं को पहचानना आदि। बाल्यावस्था के दौरान अधिगम और सूचना सम्बद्ध कार्य की गति तीव्र हो जाती है, याद रखने की अवधि बढ़ती है, संकेतों को प्रयुक्त करने की क्षमता का विकास होता है। किशोरावस्था की ओर बढ़ते बालक सूक्ष्म चिन्तन की ओर भी बढ़ने लगते हैं। अनुभव और अधिगम संज्ञानात्मक विकास में सहायक होते हैं। संज्ञानात्मक विकास से तात्पर्य बालकों में किसी संवेदी सूचनाओं को ग्रहण करके उस पर चिन्तन करने तथा क्रमिक रूप से उसे इस लायक बना देने से होता है जिसका प्रयोग विभिन्न परिस्थितियों में समस्या समाधान के लिए किया जा सके। इस प्रकार देखा जाय तो संज्ञानात्मक विकास मानसिक विकास से सम्बद्ध होता है, मानसिक विकास से अलग करके संज्ञानात्मक विकास का अध्ययन नहीं किया जा सकता।

संज्ञानात्मक विकास के सम्बन्ध में जीन पियाजे (Jean Piaget) का अध्ययन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना जाता है। अपने अध्ययनों के आधार पर पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास का सिद्धान्त प्रतिपादित किया, जो शिक्षा और शिक्षकों के लिए मील का पत्थर बना।

जीन पियाजे का संज्ञानात्मक विकास JEAN PIAGET'S COGNITIVE DEVELOPMENT)

जीन पियाजे (1896-1980), स्विट्जरलैंड निवासी का मनोवैज्ञानिक अन्वेषण करने वाले विद्वानों में अग्रणी है। जीन पियाजे ने संज्ञान विकास का एक नवीन सिद्धान्त प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार "संज्ञान विकास की अवधारणा आबु न होकर बालक द्वारा चाही गई अनुक्रिया से दूसरी अनुक्रिया। तक पहुँचने की निश्चित प्रगति है।" बालक बाद की अवस्था की क्रिया- नीतियों को शुरू के स्तर को क्रिया-नीतियों की उपलब्धि और उनके अभ्यास के बिना ग्रहण नहीं कर सकता। इस सम्बन्ध में आसबेल की टिप्पणी प्रस्तुत की जा सकती है।

"Piagets stages are identical, sequential phases in an orderly pregression of development that are qualitatively discriminable from adjacent phases and generally characteristic of most members of a broadly defined age range." यूँ तो जीन पियाजे ने जंतुविज्ञान में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। सन् 1920 में वे पेरिस की विनंद टैस्टिंग प्रयोगशाला के साथ जुड़ गए। बच्चों के साथ प्रेक्षण, विच्छेदन तथा प्रयोग करते हुए उन्होंने ज्ञानात्मक विकास या बाल बोध ग्रहण के सम्बन्ध में अपने शैक्षणिक सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। पियाजे ने अपना अध्ययन अपनी ही तीन संतानों का प्रेक्षण करते हुए आरम्भ किया। इस शुरुआत के क्रम में उन्होंने आगे अन्य बच्चों पर भी अध्ययन किया।

पियाजे की प्रकाशित पुस्तकों से स्पष्ट होता है कि जीन पियाजे ने बालक चिंतनशीलता का अतिगहन वर्णन किया है। पियाजे की पुस्तकें बालक के मानसिक विकास के विभिन्न पक्ष और प्रकरणों को विस्तार से प्रस्तुत करती है

1. The Language of Thought of the Child (1923) 2 Judgement and Reasoning in the Child (1924)

3. The Childs Conception of Physical World (1926)

4. The Moral Judgement of the Child (1932) 

5. The Origin in Intelligence in the Child (1937)

6. The Child's Conception of Numbers (1941) 

7. The Child's Conception of Time (1946) & The Child's Conception of Space (1948)

9. The Psychology of Intelligence (1950) 

10. Logic and Psychology (1953)

11. The Early Growth of Logic in the Child (1964)

12. The Mechanism of Perception (1969)

13. The Psychology of the Child (1969)

14. Science of Education and the Psychology of the Child (1969) 

15. The Grasp of Conciousness (1976)

पियाजे के संज्ञानात्मक विकास का सिद्धान्त के कुछ महत्वपूर्ण संप्रत्यय (SOME IMPORTANT CONCEPTS OF PIAGET'S THEORY OF COGNITIVE DEVELOPMENT)

पियाजे के संज्ञानात्मक विकास के सिद्धान्त की व्याख्या करने से पहले इस सिद्धान्त के कुछ महत्वपूर्ण संप्रत्ययों की संख्या करना औचित्यपूर्ण होगा

1. अनुकूलन (Adaptation)-पियाजे के अनुसार बालकों में वातावरण के साथ सामन्जस्य (Adjustment) करने की जन्मजात प्रवृत्ति (Innate tendency) होती है, जिसे अनुकूलन कहा जाता है। उन्होंने अनुकूलन प्रक्रिया की दो उपप्रक्रियायें (Subproceses) बताई हैं- आत्मसात्करण (Assimilation) तथा समायोजन (Accomodation)। इन दोनों में समानता यह है कि ये दोनों ही उपप्रक्रियायें स्वयं एवं वातावरण की वस्तुओं के बारे में सूचना प्राप्त करने की मूल योजना है। आत्मसात्करण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें बालक समस्या के समाधान के लिए या वास्तविकता से समायोजन करने के लिए पूर्व में सीखी गई मानसिक प्रक्रियाओं (Mental Operations) का सहारा लेता है। जैसे यदि शिशु किसी वस्तु को उठाकर मुँह में रख लेता है, तो यह एक आत्मसात्करण का उदाहरण होगा क्योंकि वह वस्तु को एक परिचित क्रिया अर्थात् खाने की क्रिया के साथ आत्मसात् कर रहा है। कभी-कभी ऐसा होता है कि वास्तविकता से सामंजस्य करने में पहले की परिचित मानसिक प्रक्रिया या योजना से काम नहीं चलता है। ऐसी स्थिति में बालक अपनी योजना, संप्रत्यय या व्यवहार में परिवर्तन लाता है। ताकि वह नए वातावरण के साथ अनुकूलन कर सके। जैसे यदि कोई बालक जानता है कि 'कुत्ता' क्या होता है परन्तु एक 'बिल्ली' को देखकर जब वह अपने मानसिक संप्रत्यय (Mental Concept) में परिवर्तन कर 'बिल्ली' की कुछ अलग विशेषताओं पर गौर करता है, तो यह समायोजन का उदाहरण होगा।

2. साम्यधारण (Equilibration)- साम्यधारण का संप्रत्यय अनुकूलन के संप्रत्यय से मिलता-जुलता है। साम्यधारण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा बालक आत्मसात्करण (Assimilation) तथा समायोजन (Adaptation) की प्रक्रियाओं के बीच एक संतुलन कायम करता है। इस तरह से साम्यधारण एक तरह के आत्म-नियन्त्रक (Self-regulatory) प्रक्रिया है। पियाजे का कहना था कि जब बालक के सामने ऐसी परिस्थिति या समस्या आती है, जिसका उसे कभी अनुभव नहीं हुआ था तो इससे उसमें एक तरह का संज्ञानात्मक असन्तुलन (Cognitive Disequilibrium) उत्पन्न होता है जिसे दूर करने के लिए या जिसे संतुलन (Balance) लाने के लिए वह आत्मसात्करण या समायोजन या दोनों ही प्रक्रियायें करना प्रारम्भ कर देता है।

3. संरक्षण (Conservation)-पियाजे के सिद्धान्त में यह महत्वपूर्ण संप्रत्यय है। संरक्षण से तात्पर्य वातावरण में परिवर्तन और स्थिरता दोनों को पहचानने व समझने की क्षमता तथा किसी वस्तु के रूप-रंग में परिवर्तन को उस वस्तु के तत्व (Substance) में परिवर्तन से अलग करने की क्षमता से होता है। पियाजे के सिद्धान्त का यह एक ऐसा संप्रत्यय है जिस पर मनोवैज्ञानिकों ने सबसे अधिक शोध किया है।

4. संज्ञानात्मक संरचना (Cognitive Structure) – किसी बालक का मानसिक संगठन या मानसिक क्षमताओं के सेट को संज्ञानात्मक संरचना कहा जाता है। रिली, लेविस तथा टैनर के अनुसार-"बालक के मानसिक संगठन या क्षमताओं को हो संज्ञानात्मक संरचना कहा जाता है।"

"The mental organization or abilities of any particular child are his cognitive Structure, " - Reilley, Lewis and Tanner

5. मानसिक संक्रिया (Mental Operations) - जब भी बालक किसी समस्या के समाधान पर चिन्तन करता है, वह मानसिक संक्रिया करते समझा जाता है। अतः पियाजे के सिद्धान्त में मानसिक संक्रिया चिन्तन का एक प्रमुख साधन (Tool) है। इस तरह कहा जा सकता है कि संज्ञानात्मक संरचना की संक्रियता (Action) ही मानसिक संक्रिया (Mental Operation) है।

6. स्कीम्स (Schemes)-व्यवहारों के संगठित पैटर्न (Organized Pattern) को जिसे आसानी से दोहराया जा सकता है। जैसे बालक स्कूल जाने के लिए जब अपना किताब-कॉपी वर्ग रूटिन के अनुसार होता है, स्कूल ड्रेस पहनता है, जूता पहनता है तब व्यवहार के ये सभी संगठित पैटर्न को स्कीम्स कहा जाता है। स्कीम्स का सम्बन्ध मानसिक संक्रिया से स्पष्ट है। स्कीम्स मानसिक संक्रिया अभिव्यक्त रूप (Expressed form) है।

7. स्कीमा (Schema)-स्कीमा स्कीम्स से बिल्कुल अलग संप्रत्यय है। पियाजे का स्कीमा से तात्पर्य एक ऐसी मानसिक संरचना से होता है जिसका सामान्यीकरण (Generalisation) किया जा सके। स्कीमा इस तरह मानसिक संक्रिया तथा संज्ञानात्मक संरचना से काफी सम्बन्धित संप्रत्यय है।

8. विकेन्द्रण (Decentering)- पियाजे के अनुसार विकेन्द्रण से तात्पर्य किसी वस्तु या चीज के बारे में वस्तुनिष्ठ या वास्तविक ढंग से सोचने की क्षमता से होता है। इनका कहना था कि 3-4 महीने की उम्र के बालक में ऐसी क्षमता नहीं होती है बल्कि वह किसी वस्तु या चीज के बारे में आत्मकेन्द्रित (Egocentric) ढंग से सोचता है। परन्तु कुछ उम्र बीतने पर जैसे जब वह 23-24 महीने का हो जाता है, तो उसमें वस्तु या चीज के बारे में वास्तविक ढंग से या वस्तुनिष्ठ ढंग से सोचने की क्षमता विकसित हो जाती है।


पियाजे के संज्ञानात्मक विकास का सिद्धान्त (PIAGET'S THEORY OF COGNITIVE DEVELOPMENT)

पियाजे ने बालक के संज्ञानात्मक विकास की व्याख्या करने के लिए संज्ञानात्मक विकास को चार प्रमुख अवस्थाओं में विभक्त किया है। प्रत्येक अवस्था संज्ञानात्मक संरचनाओं में तालमेल बैठाने के बालक के प्रयासों के एक भिन्न रूप को अभिव्यक्त करती है। प्रत्येक अवस्था एक विशेष समयावधि में उपयुक्त होती है तथा प्रत्येक अवस्था अपनी पूर्व अवस्थाओं से अधिक उपयुक्त होती है। पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास की निम्न चार अवस्थाएँ बताई हैं

1. संवेदी-पेशीय अवस्था जन्म से 2 वर्ष तक

2. प्राक्संक्रियात्मक अवस्था-2 से 7 वर्ष तक 

3. ठोस संक्रिया की अवस्था-7 से 12 वर्ष तक

4. औपचारिक संक्रिया की अवस्था-व्यस्कावस्था के प्रारम्भ तक

1. संवेदी-पेशीय अवस्था (Sensory-notes Stage) यह अवस्था जन्म से 2 वर्ष चलती है। इस अवस्था में शिशुओं का संज्ञानात्मक विकास 6 उप-अवस्थाओं से होकर गुजरता है। 

पहली उप-अवस्था प्रतिवर्ती क्रियाओं की अवस्था (Stage of Reflex Activities) - यह जन्म से 30 दिन तक की अवस्था होती है। इस अवस्था में बालक मात्र प्रतिवर्त क्रियायें (Reflex Activities) करता है। इन प्रतिवर्त क्रियाओं में चूसने का प्रतिवर्त (Sucking Reflex) सबसे प्रबल होता है।

दूसरी उप-अवस्था प्रमुख वृत्तीय प्रतिक्रियाओं की अवस्था (Stage of Primary Circular Reaction) - यह अवस्था से 4 माह की अवधि की होती है। इस अवस्था में शिशुओं की प्रतिवर्ती क्रियायें उनकी अनुभूतियों द्वारा कुछ हद तक परिवर्तित होती हैं, दोहराई जाती हैं और एक-दूसरे के साथ अधिक समन्वित (Co-ordinated) हो जाती हैं। इन व्यवहारों को प्रमुख (Circular) इसलिए कहा जाता है क्योंकि वे दोहराई जाती हैं।

तीसरी उप-अवस्था गौण वृत्तीय प्रतिक्रियाओं की अवस्था (Stage of Secondary Circular Reactions)- यह अवस्था 4 से 8 महीने की अवधि की होती है। इस अवस्था में शिशु वस्तुओं को उलटने-पलटने तथा छूने पर अपना अधिक ध्यान देता है न कि अपने शरीर की प्रतिवर्ती क्रियाओं पर। इसके अलावा वह जान-बूझ कर कुछ ऐसी अनुक्रियाओं को दोहराता है जो उसे सुनने या करने में रोचक तथा मनोरंजक लगती हैं।

चौथी उप-अवस्था-गौण स्कीमैटा के समन्वय की अवस्था (Stage of Co-ordination of Secondary Schemata) यह अवस्था 8 से 12 माह तक चलती है। इस अवस्था में बालक उद्देश्य तथा उस तक पहुँचाने के साधन (Means) में अन्तर करना प्रारम्भ कर देता है। जैसे-यदि कोई खिलौना छिपा दिया जाता है, तो वह उसके लिए वस्तुओं को इधर-उधर हटाकर खोज जारी रखता है। इसके द्वारा शिशु वयस्कों द्वारा किए जाने वाले कार्यों का अनुकरण (Imitation) भी प्रारम्भ कर देता है। इस अवधि में शिशु जो स्कीमा सीखते हैं, उनका वे एक परिस्थिति से दूसरी परिस्थिति में सामान्यीकरण (Generalize) करना भी प्रारम्भ कर देते हैं।

पाँचव उप-अवस्था-तृतीय वृत्तीय प्रतिक्रियाओं की अवस्था (Stage of Tertiary Circular Reactions)- यह अवस्था 12 महीने से 18 महीने की अवधि की होती है। इस अवस्था में बालक वस्तुओं के गुणों को प्रयास एवं त्रुटि (Trial and Error) विधि से सीखने की कोशिश करता है। इस अवस्था में बालक की अपनी शारीरिक क्रियाओं में अभिरुचि कम हो जाती है और वह स्वयं कुछ वस्तुओं को लेकर प्रयोग करता है। बालक में उत्सुकता अभिप्रेरक (Curiosity Notive) अधिक प्रवृत्त हो जाता है तथा उनमें वस्तुओं ऊपर से नीचे गिराकर अध्ययन करने की प्रवृत्ति अधिक होती है।

छठवीं उप-अवस्था मानसिक संयोग द्वारा नए साधनों की खोज की अवस्था (Stage of the Invention of New Means through Mental Combination)- यह अन्तिम उप-अवस्था है जो 18 से 24 माह तक की अवधि की होती है। यह वह अवस्था होती है जिसमें बालक वस्तुओं के बारे में चिंतन करना प्रारंभ कर देता है। इस अवधि में बालक उन वस्तुओं के प्रति भी अनुक्रिया करना प्रारम्भ कर देता है जो सीधे दृष्टिगोचर नहीं होती हैं। इस गुण को वस्तु स्थायित्व (Object Performance) कहा जाता है।

2. प्राक्सक्रियात्मक अवस्था (Preoperational Stage)-संज्ञानात्मक विकास की यह अवस्था 2 से 7 वर्ष की होती है। यह प्रारम्भिक बाल्यावस्था होती है। इस अवस्था को पियाजे ने 2 अवधियों में बाँटा है:-

1. प्राक्संप्रत्यात्मक अवधि 2 से 4 वर्ष तक

2 अन्तर्दर्शी अवधि - 4 से 7 वर्ष तक

प्रथम अवधि-प्राक्संप्रत्यात्मक अवधि (Preconceptual Period)- इस अवस्था में बालक सूचकता (Signifiers) विकसित कर लेते हैं। सूचकता से तात्पर्य इस बात से होता है कि बालक यह समझने लगता है कि वस्तु, शब्द, प्रतिमा तथा चिन्तन किसी चीज के लिए किया जाता है। पियाजे ने दो तरह की सूचकता पर बल डाला है

1 संकेत (Symbol) - किसी ठोस वस्तु के मानसिक चिन्तन (Mental Representation) का दूसरा नाम संकेत है। संकेत तथा ठोस वस्तु में अधिक सादृश्यता होती है। जैसे-जब बालक अपनी माँ की आवाज को सुनता है तब उसके मन में माँ की एक प्रतिमा बनती है, जो संकेत का उदाहरण है।

II चिह्न (Sign)-चिह्न में वस्तुओं (Objects) में, जिनका बालक मानसिक चिन्तन (Mental Representation) करते हैं, इतनी अधिक सादृश्यता (Resemblance) नहीं होती है। चिह्न में वस्तुओं या घटनाओं का एक अमूर्त चिन्तन (Abstract Representation) होता है। शब्द या भाषा के अन्य पहलू सब सामान्य चिह्न के उदाहरण हैं।

पियाजे ने संकेत तथा चिह्न को प्राक्संक्रियात्मक चिन्तन (Preoperational Thoughts) का महत्वपूर्ण साधन (Tool) माना जाता है। इस अवस्था में बालकों को इन सूचकता का अर्थ समझना होता है तथा साथ ही साथ उसे अपने चिन्तन एवं कार्य में उसका प्रयोग करना सीखना होता है। इसे पियाजे ने लाक्षणिक कार्य (Semiotic Function) की संज्ञा दी है। पियाजे ने यह भी बताया है कि बालकों में लाक्षणिक कार्य मूलतः दो तरह की क्रियाओं (अनुकरण एवं खेल) द्वारा होता है। अनुकरण (Imitation) की प्रक्रिया द्वारा बालक सूचकता को सीखते हैं। उदाहरणस्वरूप, बालक जब माँ को 'फूल को फूल' कहने का अनुकरण है, तो वह धीरे-धीरे फूल एवं उसके अर्थ को समझ जाता है। खेल के माध्यम से भी बालक सूचकता के अर्थ को समझते हैं तथा उसका सही-सही प्रयोग अपने चिन्तन एवं क्रियाओं में करना सीखते हैं।

पियाजे ने प्राक्संक्रियात्मक चिन्तन (Preoperational Thoughts) की दो सीमाएँ (Limitations) बताई हैं जो निम्नवत् है:- 

(1) जीववाद (Animism)-जीववाद के चिन्तन में एक ऐसी सीमा की ओर बताता है जिसमें बालक निर्जीव वस्तुओं को सजीव समझता है। जैसे-कार, पंखा, हवा, बादल आदि सब उसके लिए सजीव होते हैं।

(II) आत्मकेन्द्रित (Egocentrism) इसमें बालक सिर्फ अपने ही विचार को सही मानता है। उसे कुछ इस तरह का विश्वास हो जाता है कि दुनिया की अधिकतर चीजें उसके इर्द-गिर्द चक्कर लगाती रहती हैं। जैसे-वह तेजी से दौड़ता है, तो सूर्य भी तेजी से चलना प्रारम्भ कर देता है, उसकी गुड़िया वही देखती है जो वह देखता है, आदि-आदि। पियाजे ने यह भी बताया कि जैसे-जैसे बालकों का सम्पर्क अन्य बालकों एवं भाई-बहिनों से बढ़ता चला जाता है, उसके चिन्तन में आत्मकेन्द्रिता कम होती जाती है।

द्वितीय अवधि अन्तर्दर्शी अवधि (Intutive Period)- इस अवधि में बालकों का चिन्तन एवं तर्क (Reasoning) पहले से अधिक परिपक्व हो जाते हैं जिसके परिणामस्वरूप वह साधारण मानसिक प्रक्रियायें जो जोड़, घटाव (बाकी), गुणा तथा भाग आदि में सम्मिलित होती हैं, उन्हें वह कर पाता है। परन्तु, इन मानसिक प्रक्रियाओं के पीछे छिपे नियमों को वह नहीं समझ पाता है। अन्तर्दर्शी चिन्तन (Intutive thinking) इस प्रकार एक ऐसा चिन्तन होता है जिसमें कोई क्रमबद्ध तर्क (Systematic Logic) नहीं होता है। पियाजे ने अन्तर्दर्शी चिन्तन की भी एक सीमा बताई है और वह यह है कि 4 से 7 वर्ष के बालकों के चिन्तन पलटावी गुण (Trait of reversibility) नहीं होता है; जैसे समझता है कि 2 x 2 = 4 हुआ, परन्तु 4 /2 = 2 कैसे हुआ नहीं समझ पाता। बालक तो यह

3. ठोस संक्रिया की अवस्था (Stage of Concrete Operation) - यह अवस्था 7 वर्ष से

प्रारम्भ होकर 12 वर्ष तक चलती रहती है। इस अवस्था की विशेषता यह है कि बालक दो वस्तुओं अर्थात् ठोस वस्तुओं (Concrete Objects) के आधार पर वे आसानी से मानसिक संक्रियायें करके समस्या का समाधान कर लेते हैं। परन्तु उन वस्तुओं को न देकर उसके बारे में शाब्दिक कथन (Verbal Statement) तैयार करके यदि समस्या उपस्थित की जाती है, तो वे ऐसी समस्याओं पर मानसिक संक्रियायें कर किसी निष्कर्ष पर पहुँचने में असमर्थ रहते हैं। जैसे यदि उन्हें तीन वस्तुएँ A, B. C दी जाएँ तो उन्हें देखकर वे आसानी से कह देंगे कि इनमें 'A', 'B' से बड़ा है और 'B' 'C' से बड़ा है। अत: सबसे बड़ा 'A' है। परन्तु यदि उनसे यह कहा जाए कि 'जय' 'अनु' है और 'अनु' बड़ा है 'मनु' से, तो तीनों में सबसे बड़ा कौन है, तो इसका उत्तर देने में बालक असमर्थ रहता है। इसका कारण यह है कि इस समस्या में ठोस संक्रिया संभव नहीं है क्योंकि समस्या शाब्दिक कथन के रूप में उपस्थित की गई है। इस उदाहरण से यह भी स्पष्ट है कि इस अवस्था में बालकों का चिन्तन एवं तर्क प्राक्संक्रियात्मक अवस्था की तुलना में अधिक क्रमबद्ध एवं तर्क संगत हो जाती है। इस अवस्था के चिन्तन की एक विशेषता यह भी है कि इसमें

पलटावी गुण आ जाता है। जैसे- अब बालक यह समझने लगते हैं कि 2 x 2 = 4 हुआ तो 4/2 = 2 होगा। इस अवस्था में बालकों में तीन महत्वपूर्ण संप्रत्यय विकसित हो जाता है-संरक्षण (Conservation), सम्बन्ध (Relation) तथा वर्गीकरण (Classification) |

इस अवस्था में बालक, तरल, लम्बाई, भार तथा तत्व (Substance) के संरक्षण से सम्बन्धित समस्याओं का समाधान करते पाए जाते हैं। वे क्रमिक सम्बन्धों (Ordinal Relations) से सम्बन्धित समस्याओं का भी समाधान करते पाए जाते हैं। अर्थात् दी गई वस्तुओं को उसकी लम्बाई या वजन के अनुसार घटते क्रम या बढ़ते क्रम में सजाने की क्षमता आ जाती है। इसे पंक्तिबद्धता (Seriation) की संज्ञा दी जाती है। उसी तरह से इस अवस्था में वस्तुओं के गुण के अनुसार उसे किसी एक वर्ग या उपवर्ग में छौंटने की भी क्षमता विकसित हो जाती है। 
इतना होने के बावजूद ठोस संक्रियात्मक चिन्तन (Concrete Operational Thinking) की दो प्रमुख सीमाएँ बताई गई है

I. की गई हो। इस अवस्था में बालक मानसिक संक्रियायें तभी कर पाते हैं जब वस्तु ठोस रूप में उपस्थित

II इस अवस्था में चिन्तन पूर्णतः क्रमबद्ध नहीं होता है क्योंकि बालक दी गई समस्या के तार्कित रूप से संभावित सभी समाधानों के बारे में नहीं सोच पाता है।

4. औपचारिक संक्रिया की अवस्था (Stage of Formal Operations) यह अवस्था ।। वर्ष से आरम्भ होकर वयस्कावस्था तक चलती है। इस अवस्था में किशोरों का चिन्तन अधिक लचीला (ible) होता है तथा प्रभावी (Effective) भी हो जाता है। उसके चिन्तन में पूर्ण क्रमबद्धता (Systematization) आ जाती है। अब वे किसी समस्या का समाधान काल्पनिक रूप से (Hypothetically) सोच कर एवं चिन्तन करके करने में सक्षम हो जाते हैं। इस अवस्था में समस्या के समाधान के लिए समस्या के एकांश (Items) को ठोस रूप से उसके सामने उपस्थित होना अनिवार्य नहीं है। इस तरह किशोरों के चिन्तन में वस्तुनिष्ठता (Objectivity) तथा वास्तविकता को भूमिका अधिक बढ़ जाती है।

पियाजे का मत है कि औपचारिक संक्रिया की अवस्था अन्य अवस्थाओं की तुलना में अधिक परिवर्त्य (Variable) होती है तथा यह किशोरों के शिक्षा के स्तर से सीधे प्रभावित होती है। जिन बालकों का शिक्षा-स्तर काफी नीचा होता है, उनमें औपचारिक संक्रियात्मक चिन्तन भी काफी कम होता है। परन्तु, जिस बालक का शिक्षा स्तर काफी ऊँचा होता हैं, उनमें औपचारिक संक्रियात्मक चिन्तन अधिक मात्रा में पाया जाता है।

ब्रूनर का संज्ञानात्मक विकास का सिद्धान्त (BRUNER'S THEORY OF COGNITIVE DEVELOPMENT)

जैरोम ब्रूनर (Jerome Bruner) नामक अमेरिकी मनोवैज्ञानिक ने भी संज्ञानात्मक विकास के एक नए सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। ब्रूनरके इस सिद्धान्त को पियाजे द्वारा प्रतिपादित संज्ञानात्मक सिद्धान्त का एक प्रमुख विकल्प माना जाता है। बालकों के संज्ञानात्मक व्यवहार का विस्तृत अवलोकन करके ब्रूनर ने संज्ञानात्मक विकास की विशेषताओं को वर्गीकृत किया। ब्रूनर के अनुसार संज्ञानात्मक विकास को निम्न तीन स्तरों में बाँटा जा सकता है-



सामान्य भाषा में उपर्युक्त तीनों स्तरों को निम्नवत् व्यक्त किया जा सकता है

I. क्रियात्मक स्तर - क्रिया स्तर (Action Level) 
II. प्रतिबिम्बात्मक स्तर - प्रतिबिम्ब स्तर (Image Level)
III. संकेतात्मक स्तर - शब्द स्तर (Word Level)

प्रथमतः बालक गामक गतिविधियाँ करता है, उसके बाद वह प्रतिबिम्ब बनाना आरम्भ करता है और अन्त में वह सीखे हुए शब्दों और भाषा का प्रयोग करने लगता है। पियाजे द्वारा वर्णित तीनों अवस्थाएँ ब्रूनर के तीनों स्तर से मेल खाती हैं। हमारी वर्तमान शिक्षा व्यवस्था की सबसे बड़ी कमी यह है कि शिक्षा 'शब्दों' से या अनुभव के परोक्ष रूप से आरम्भ होती है, वह शिक्षा अधिक प्रभावी हो सकती है जिसकी शुरुआत गामक क्रियाओं से की जाये।

ऐसा प्रतीत होता है कि ब्रूनर का विकास का सिद्धान्त पियाजे के संवेदी पेशीय अवस्था, ठोस संक्रिया की अवस्था तथा औपचारिक संक्रिया की अवस्था का विकल्प है, परन्तु ब्रूनर की व्याख्या विचारों के विकास में भाषा की भूमिका के सम्बन्ध में पियाजे से बिल्कुल अलग है। पियाजे के अनुसार विचार और भाषा अलग-अलग प्रक्रिया होते हुए भी बहुत नजदीकी सम्बन्ध रखते हैं। पियाजे के अनुसार बालक की विचार प्रक्रिया उसके आन्तरिक तर्कों पर आधारित होती है, आन्तरिक तर्क इस बात पर निर्भर होता है कि बालक किस प्रकार अनुभवों को सीखता और व्यवस्थित करता है। छोटे बालक दृश्य प्रतिबिम्बों और अनुकरण के आधार पर प्रतिक्रिया करते हैं। ब्रूनर के अनुसार विचार आन्तरिक भाषा है जो तर्क पर नहीं अपितु भाषा विज्ञान के नियमों पर आधारित होता है।

संज्ञानात्मक विकास को प्रभावित करने वाले कारक (FACTOR'S INFLUENCING COGNITIVE DEVELOPMENT)

संज्ञानात्मक विकास को प्रभावित करने वाले विभिन्न कारक हैं, जिनमें से कुछ पीढ़ी दर पीढ़ी (genetic) चलते हैं और कुछ वातावरणीय व जैविक कारक भी मानसिक व संज्ञानात्मक विकास को प्रभावित करते हैं।

को व क्रो के अनुसार- "विभिन्न कारक मानसिक विकास को प्रभावित करते हैं। वंशागत नाड़ी मण्डल की रचना सम्भावित विकास की गति और सीमा को निश्चित करती है। कुछ अन्य भौतिक दशाएँ या व्यक्तिगत और वातावरण सम्बन्धी कारक मानसिक प्रगति को तीव्र या मन्द कर सकते हैं।"

"Various factors affect mental development. The Constitution of the inherited nervous system determines the rate and extent of possible development, certain other physical conditions or individual and environmental factors may accelerate or retard mental progress. -Crow and Crow

बहुत से बालकों में ऐसी बौद्धिक अक्षमताएँ पाई जाती हैं जो उन्हें वंशक्रम से प्राप्त होती हैं। वातावरणीय कारकों के अन्तर्गत भोजन एवं पोषण, माता-पिता का उत्साहपूर्वक प्रतिक्रिया करने वाला व्यवहार, प्रतिदिन के अनुभव, शारीरिक क्रियाकलाप और बड़ों से स्नेह प्राप्ति आदि आते हैं, जो बालकों के मस्तिष्क के प्रारम्भिक विकास पर प्रभाव डालते हैं। पारिवारिक परिवेश, सामाजिक-आर्थिक स्थिति, स्वास्थ्य, माता-पिता की शिक्षा, विद्यालय, अध्यापक, समाज, समुदाय, खेल के साथी आदि का प्रभाव बालक के मानसिक व संज्ञानात्मक विकास पर पड़ता है।

अध्यापकों के लिए संज्ञानात्मक विकास के निहितार्थ (IMPLICATIONS OF COGNITIVE DEVELOPMENT FOR TEACHERS)

संज्ञानात्मक विकास बालकों की शिक्षा का अति महत्वपूर्ण आधार है। अतः वांछित शिक्षा प्रदान करने के लिए ऐसे अध्यापक की आवश्यकता होती है जो बालक के संज्ञानात्मक विकास की क्रमशः जटिल होती अवस्थाओं का ज्ञान रखता हो। जब अध्यापक अवस्था के अनुसार बालक के सीखने को रुचि और कौतुहलपूर्ण बना देता है, तब वह अधिगम अर्थपूर्ण बन जाता है। पियाजे द्वारा बताई गई संज्ञानात्मक विकास की अवस्थाएँ क्रमशः जटिल होती जाती हैं। बालकों के द्वारा एक अवस्था से दूसरी अवस्था में जाने की गति उनकी शारीरिक परिपक्वता तथा वातावरणीय अनुभवों पर आधारित होती है। कुछ बालकों का मानसिक विकास तीव्र गति से होता है, कुछ का औसत गति से होता है तथा कुछ का मन्द गति से होता है। यही कारण है कि विभिन्न अवस्थाओं की आयु सीमा अथवा अवधि पूर्णरूपेण निश्चित न होकर लगभग (Approximate) होती है। कोई भी अवस्था एकदम से समाप्त नहीं हो जाती है, बल्कि धीरे-धीरे एक अवस्था से दूसरी अवस्था में प्रविष्ट होती है। बालक किसी एक क्षेत्र में पूर्व-संक्रियात्मक अवस्था में हो सकता है, जबकि किसी अन्य क्षेत्र में वह औपचारिक संक्रिया की अवस्था में हो सकता है। पियाजे द्वारा बताई गई संज्ञानात्मक विकास की अवस्थाओं का अध्यापक की दृष्टि से सार्थक होने के कारण अध्यापकों के लिए निहितार्थों का वर्णन निम्नवत् किया जा सकता है

1. अध्यापक सुनियोजित क्रिया-कलापों से बालक में जिज्ञासा जगाएँ।

2. मूर्त सामग्री प्रस्तुत करने पर बालक शीघ्रता और दक्षता से सीखते हैं।

3. बालकों के लिए पाठ्यक्रम तैयार करने में यह सिद्धान्त अध्यापक को विकास का विस्तृत सन्दर्भ प्रदान करता है। 
4. इस सिद्धान्त के अनुसार बालक के मानसिक विकास हेतु उसको सिखाने और सीखने की प्रक्रिया में सक्रियता के साथ संयोजित किया जाए।

5. व्यवस्था की आन्तरिक सामंजस्यता को विकसित करने में बालक की सहायता की जाए।

6. कहानी सुनाना, कविता पाठ, गीत गाना जैसे बहुत से ज्ञानात्मक क्रियाकलापों को एक व्यवस्थित तरीके से कार्यक्रय में सम्मिलित किया जाए। 

7. सिखाने और सीखने की स्थिति उस बिंदु तक पहुँचाई जाए जहाँ बालक चीजों और विचारों से कुछ परिचित रहता है। 

8. शैक्षणिक कार्यक्रम को बालक को जानकारी का एकीकरण करने योग्य बनाती है।

9. वास्तविक घटनाएँ और मूर्त वस्तुएँ सीखने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करती हैं।

10. यदि बालक को आरम्भिक वर्षों में समुचित रूप से विस्तृत ऐंद्रिक और चेतना अनुभव नहीं होने दिया जाता है तो उसका विकास अवरुद्ध हो जाता है। 

11. गणित और विज्ञान में भौतिक पर्यावरण से सीखना पुस्तकों, लोगों या दूरदर्शन की तुलना में कहीं अधिक महत्वपूर्ण है।

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