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शिक्षा की दृष्टि से संवेगात्मक विकास मानव विकास और वृद्धि के महत्वपूर्ण पहलुओं में से एक आवश्यक पहलू है। यह सर्वमान्य तथ्य है कि संवेग अधिगम (Learning) में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अत: अध्यापकों के लिए संवेगों की प्रकृति, विकासक्रम और अभिव्यक्ति तक बालकों के पहुँचने की जानकारी रखना आवश्यक है। संवेग व्यक्ति के व्यवहार को निर्देशित करते हैं। शिशु, बालक, किशोर हरेक में संवेग के भाव होते हैं और वे व्यक्तिगत रूप से प्रकट होते हैं। संवेगात्मक विकास एक प्रकार की मानसिक दशा होती है। संवेगात्मक विकास एक प्रकार की मानसिक दशा होती है। संवेगात्मक विकास में संवेग का महत्व होता है, इसलिए पहले संवेगों के बारे में जानकारी करनी चाहिए।
संवेग का अर्थ (MEANING OF EMOTION)
संवेग प्राणी का वह आन्तरिक अनुभव है, जिसमें उसकी मानसिक स्थिति एक उथल-पुथल प्रवृत्ति के रूप में व्यक्त होती है। हम संवेग को प्रायः मूल प्रवृत्ति ही समझ लेते हैं, किन्तु ऐसा मानना उचित नहीं है। इसमें कोई संदेह नहीं कि संवेग भी मूल प्रवृत्ति की भाँति जन्मजात प्रवृत्ति है, किन्तु दोनों में भिन्नता है। जहाँ मूल-प्रवृत्ति क्रियात्मक है, वहीं संवेग भावात्मक प्रवृत्ति है।
संवेग का अंग्रेजी रूपान्तर 'Emotion' है जो लैटिन शब्द 'Emovere' से बना है, जिसका अर्थ उत्तेजित करना (Excite) होता है। इस शाब्दिक अर्थ को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि संवेग व्यक्ति की उत्तेजित अवस्था का दूसरा नाम है। वास्तव में संवेग एक जटिल अवस्था है जिसमें कुछ शारीरिक प्रतिक्रियायें (Bodily Reactions), जैसे हृदय गति में परिवर्तन, रक्त चाप (Blood Pressure) में परिवर्तन आदि होती हैं। इनके अलावा शरीर के बाहरी अंगों जैसे-हाथ, पैर, आँख, चेहरा आदि में भी कुछ परिवर्तन हो जाते हैं जिसे देखकर यह समझा जा सकता है कि बालक संवेग की स्थिति में है। संवेग की शारीरिक प्रतिक्रियायें, अभिव्यंजक व्यवहार (Expressive Behaviours) के अलावा एक आत्मनिष्ठ भाव (Subjective Feeling) भी होता है। सामान्यतः किसी भी संवेग में सुखद (Pleasantness) या दुःखद (Unpleasantness) के भाव (Feeling) की अनुभूति पाई जाती है। जैसे-भय में दुःखद भाव की अनुभूति तथा खुशी में सुखद भाव की अनुभूति होती है। यहीं बात अन्य संवेगों की स्थिति में भी पाई जाती है।
नीचे प्रस्तुत विभिन्न परिभाषाओं से संवेग का अर्थ और अधिक स्पष्ट हो सकेगा।
संवेग की परिभाषाएँ (DEFINITIONS OF EMOTION)
को तथा को के अनुसार- "एक संवेग इस प्रकार से एक भावात्मक अनुभव है जो व्यक्ति में सामान्यीकृत आन्तरिक समायोजन और मानसिक तथा शारीरिक रूप से उत्तेजित दशाओं के साथ-साथ होता है, और वह उसके बाह्य व्यवहार में दिखाई देता है। इस प्रकार से परिभाषा किए जाने पर एक संवेग एक आन्तरिक गत्यात्मक समायोजन होता है, जो व्यक्ति की संतुष्टि, सुरक्षा और कल्याण के लिए संक्रियाशील होता है।"
"An emotion, then is an affective experience that accompanies generalized, inner, adjustment and mental and physiological stirred up states in the individual and that shows itself in his overt behaviour. Thus defined, an emotion is a dynamic internal adjustment that operates for the satisfaction, protection and welfare to the individual." - Crow and Crow
गेलडार्ड के अनुसार- "संवेग क्रियाओं का उत्तेजक है।"
"Emotion is inciters to action." - Geldard
इंगलिश तथा इंगलिश के अनुसार-"संवेग एक जटिल भाव की अवस्था होती है जिसमें कुछ खास-खास शारीरिक एवं ग्रन्थीय क्रियाएँ होती हैं।"
"Emotion is a complex feeling state accomplained by characterstics or glandular activities." -English and English
बेरोन, बर्न तथा कैण्टोविज के अनुसार-"संवेग से तात्पर्य एक ऐसी आत्मनिष्ठ भाव की अवस्था से होता है जिसमें कुछ शारीरिक उत्तेजना पैदा होती है और फिर उसमें कुछ खास-खास व्यवहार होते हैं।"
"By emotion we mean a subjective feeling state involving physiological arousal accomplained by characterstic behaviour." -Baron, Burn and Kantowitz
वुडवर्थ के अनुसार- "संवेग किसी प्राणी की गतिमय और हलचलपूर्ण अवस्था है। व्यक्ति को स्वयं यह अपनी भावनाओं की उत्तेजनापूर्ण स्थिति प्रतीत होती है। दूसरे व्यक्ति को यह उत्तेजित अथवा अशांत माँसपेशियों और ग्रन्थियों की एक क्रिया के रूप में दिखाई देती है।"
"Emotion is a 'moved' ar 'Stirred up' state of an organism.
It is a stirred up state of feeling, that is the way it appears that to the individual himself. It is a disturbed muscular and gandular activity that is the way it appears to an external observer." -Woodworth
चार्ल्स जी, मोरिस के अनुसार-"संवेग एक ऐसी जटिल भावात्मक अनुभूति जिसमें आंतरिक रूप से व्यक्ति को शारीरिक परिवर्तनों से गुजरता पड़ता है तथा जिसकी बाह्य अभिव्यक्ति विशेष व्यवहार प्रतिमानों तथा लक्षणों के रूप में होती है।"
"Emotion is a complex affective experience that involves diffuse physiological changes and can be expressed overtly in character behaviour patterns." - Charles G. Moris
रॉस के अनुसार- "संवेग चेतना की वह अवस्था है जिसमें रागात्मक तत्व की प्रधानता रहती है।"
"Emotional states are those modes of conciousness in which the feelings element is predominent." - Ross
वैलेन्टाइन के अनुसार- "जब रागात्मक प्रकृति का वेग बढ़ जाता है तभी संवेग को उत्पत्ति होती है।"
"When feelings become intense, we have emotions." - Valentine
जरशील्ड के अनुसार- "किसी भी प्रकार के आवेश आने, भड़क उठने तथा उत्तेजित हो जाने की अवस्था को संवेग कहते हैं। "
"The term emotion denotes a state of being moved, stirred up or aroused in same way." - Jershield
पी. टी. यंग के अनुसार-"संवेग मनोवैज्ञानिक कारकों से उत्पन्न सम्पूर्ण व्यक्ति के तीव्र उपद्रव की अवस्था है, जिसमें व्यवहार, चेतना, अनुभव और अभारावयव के कार्य सन्निहित रहते हैं।" "Emotion is an acute disturbance of the individual as a whole, Psychological is arigin, involving behaviour, concious, experience and visual functioning." - P. T. Young
संवेगों की विशेषताएँ (CHARACTERISTICS OF EMOTIONS)
संवेगों की मानव जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। संवेगों की प्रकृति भावात्मक होती है. जो व्यक्ति को क्षणिक उत्तेजना प्रदान करते हैं। संवेगों को व्यक्ति की मुख-मुद्रा, वाणी तथा अन्य व्यवहार के अवलोकन से पहचाना जा सकता है। संवेगों की निम्नांकित विशेषताएँ होती हैं:-
1. संवेगों में व्यापकता पाई जाती है। संवेग पशु-पक्षी, बालक-वृद्ध, सभी में पाए जाते हैं।
2 मनुष्य की सभी दशाओं एवं अवस्थाओं में संवेग पाए जाते हैं।
3. संवेगात्मक अनुभूतियों के साथ-साथ कोई-न-कोई मूल प्रवृत्ति अथवा मूलभूत आवश्यकता जुड़ी रहती है।
4. सामान्य रूप से संवेग की उत्पत्ति प्रत्यक्षीकरण के माध्यम से होती है।
5. किसी भी संवेग को जाग्रत करने के लिए भावनाओं का होना आवश्यक है।
6. प्रत्येक संवेगात्मक अनुभूति व्यक्ति में कई प्रकार के शारीरिक और शरीर सम्बन्धी परिवर्तनों को जन्म देती है।
7. संवेग में अस्थिरता पाई जाती है।
8 संवेग मनोशारीरिक होता है।
9. संवेग की दशा में बुद्धि काम नहीं करती है।
10. संवेग पर परिस्थिति और ग्रन्थियों का प्रभाव पड़ता है।
11. संवेग का प्रकाशन हरेक व्यक्ति व्यक्तिगत ढंग से करता है।
12. संवेग का परिणाम कोई क्रिया अवश्य होती है।
13. प्रशिक्षण, ज्ञान, अनुभव की वृद्धि आदि के परिणामस्वरूप मनुष्य में विशेषकर संवेगों का स्थानान्तरण होता है।
संवेगों के प्रकार (KINDS OF EMOTIONS)
संवेग अनेक प्रकार के होते हैं। मैकडूगल ने 14 मूल प्रवृत्तियों के सापेक्ष कुल 14 संवेगों का उल्लेख किया है, जिनमें से प्रत्येक संवेग एक-एक मूल प्रवृत्ति से सम्बन्धित होता है। ये चौदह संवेग तथा सम्बन्धित मूल प्रवृत्तियाँ अग्र प्रकार हैं:-
मूल प्रवृत्ति (Instinct) | संवेग (Emotion) |
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1. पलायन (Escape) | भय (Fear) |
2. युयुत्सा (Combat) | क्रोध (Anger) |
3. निवृत्ति (Repulsion) | घृणा (Disgust) |
4. सन्तान कामना (Parental) | वात्सल्य (Tenderness) |
5. शरणागति (Appeal) | करुणा (Distress) |
6. काम प्रवृत्ति (Sex) | कामुकता (Lust) |
7. जिज्ञासा (Curiosity) |
आश्चर्य (Wonder)
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8. दैन्य (Submission) |
आत्महीनता (Negative Self Feeling)
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9. आत्म गौरव (Self Assertion) |
आत्म-अभिमान (Positive Self Feeling)
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10. सामूहिकता (Gregariousren) |
एकाकीपन (Lonliness)
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11. भोजन तलाश (Food Seeking) |
भूख (Hunger)
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12 संग्रहण (Acquistion)
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अधिकार (Feeling of Ownership)
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13. रचनाधर्मिता (Construction) |
कृतिभाव (Creativeness)
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14. हास (Laughter) |
आमोद (Amusement)
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भारतीय चिन्तन में 'राग' तथा 'द्वेष' नामक दो मुख्य संवेगों को स्वीकार किया गया है, जिनका विवरण निम्नवत् प्रस्तुत है:-
1. रागात्मक संवेग (Positive Emotions) | |
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विवरण | संवेग |
I. अपने से बड़ों के प्रति राग | सम्मान, भक्ति, श्रद्धा । |
II. अपने बराबर वालों के प्रति राग | मित्रता, प्रेम, आसक्ति। |
III. अपने से छोटों के प्रति राग
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स्नेह, वात्सल्य, दया। |
2. द्वेषात्मक संवेग (Negative Emotions) | |
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विवरण | संवेग |
I. अपने से बड़ों के प्रति द्वेष | भय, कायरता, घृणा । |
II अपने बराबर वालों के प्रति द्वेष | क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष । |
III. अपने से छोटों के प्रति द्वेष | गर्व, अभिमान, अधिकार। |
संवेगात्मक विकास की विशेषताएँ (CHARACTERISTICS OF EMOTIONAL DEVELOPMENT)
संवेगात्मक विकास की कुछ विशेषताएँ निम्नवत् चिह्नित की गई हैं:-
1. संवेगात्मक विकास शिशु, बाल्य, किशोर एवं अन्य अवस्थाओं में एक क्रम से होता है।
2 बालक ज्यों-ज्यों बढ़ता जाता है उसके संवेगों के विकास में जटिलता आती जाती है।
3. संवेगात्मक विकास में जो अनुभव होते हैं उनकी वृद्धि से परिपक्वता आती है।
4. संवेगात्मक विकास संवेगों के प्रशिक्षण (संवेगों पर नियन्त्रण, उचित ढंग से और यथा आवश्यकता प्रकट करना, एक संवेग में दूसरे संवेग को विलय करना और उनका शोधन करना) पर भी बहुत कुछ निर्भर करता है।
5. संवेगात्मक विकास प्राणी के व्यवहारों से सम्बन्धित होता है।
शैशवावस्था में संवेगात्मक विकास (EMOTIONAL DEVELOPMENT DURING INFANCY)
संवेग की उपस्थिति के बारे में स्प्रिट्ज नामक मनोवैज्ञानिक ने लिखा है-"संवेग जन्म से ही विद्यमान नहीं रहते हैं। मानव व्यक्तित्व के किसी अंग के समान उनका विकास होता है।" गेट्स एवं अन्य का भी कहना है-"प्रारम्भ में संवेगात्मक प्रतिक्रियायें एक सामान्य उत्तेजना मात्र होती हैं। उनमें क्रोध, भय, हर्ष आदि का भी स्पष्ट बोध नहीं होता।"
उपर्युक्त कथनों से ज्ञात होता है कि शैशवावस्था में संवेगात्मक विकास भी प्रारम्भ होता है। शैशवावस्था में शिशु के संवेगात्मक विकास के सम्बन्ध में निम्नलिखित बातें उल्लेखनीय हैं
1. शिशु जन्म के समय रोता, चिल्लाता तथा पैर पटकता है। इसी प्रकार वह जन्म के समय से ही संवेगात्मक व्यवहार की अभिव्यक्ति करते हैं।
2 शिशु का संवेगात्मक व्यवहार अत्यधिक अस्थिर होता है। शिशु का संवेग थोड़े समय तक रहता है और शीघ्र ही समाप्त हो जाता है। उदाहरणार्थ, शिशु गोदी में आने के लिए रोता है किन्तु गोद में आने के बाद चुप हो जाता है। जैसे-जैसे आयु बढ़ती जाती है, संवेगों में स्थिरता आती जाती है।
3. आरम्भ में शिशु के संवेग काफी तीव्र होते हैं, किन्तु धीरे-धीरे यह तीव्रता कम हो जाती है। उदाहरणार्थ-दो या तीन माह का शिशु तब तक रोता रहता है, जब तक उसकी इच्छा पूरी नहीं हो जाती। 4 या 5 वर्ष का बालक इस प्रकार का व्यवहार नहीं करता।
4. शिशु की संवेगात्मक अभिव्यक्ति में क्रमशः परिवर्तन होता जाता है। शिशु आरम्भ में प्रसन्न होने पर केवल मुस्कराता है। कुछ और बड़ा होने पर वह हँसकर अपनी प्रसन्नता दिखाता है,। विभिन्न प्रकार की ध्वनियाँ उत्पन्न करके व्यक्त करता है।
5. आरम्भ में शिशु के संवेगों में अस्पष्टता होती है, लेकिन जैसे-जैसे वह बड़ा होता जाता है. उनमें स्पष्टता आती जाती है। गेसेल ने अध्ययन करके बताया कि पाँच सप्ताह के शिशु की भूख, क्रोध और कष्ट की चिल्लाहटों में अन्तर आ जाता है।
6. जोन्स का कथन है कि 2 वर्ष तक का शिशु साँप से नहीं डरता है, परन्तु धीरे-धीरे उनमें भय का विकास होता है। तीन वर्ष की आयु में वह अंधेरे तथा पशुओं से डरने लगता है। 5 वर्ष की आयु तक वह अपने भय पर नियन्त्रण नहीं कर पाता है।
7. लगभग दो वर्ष की आयु तक शिशु में लगभग सभी मुख्य संवेगों का विकास हो जाता हैं। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक ब्रिजेज के अनुसार विभिन्न प्रकार के संवेगों के उदय होने की औसत आयु अगले पृष्ठ पर दी गई सारणी में प्रस्तुत की गई है।
8. मनोवैज्ञानिक वॉटसन के अनुसार तीन संवेग शैशवावस्था में बहुत स्पष्ट तरीके से प्रदर्शित
होते हैं- (i) स्नेह, (ii) भय तथा (iii) क्रोध।
इस प्रकार हम पाते हैं कि शिशु का संवेगात्मक व्यवहार धीरे-धीरे स्पष्ट और निश्चित होने लगता है। स्किनर और हैरीमैन का इसके बारे में सोचना है-"शिशु का संवेगात्मक व्यवहार धीरे-धीरे अधिक निश्चित और स्पष्ट हो जाता है। उसके व्यवहार के विकास की सामान्य दिशा अनिश्चित और अस्पष्ट से विशिष्ट की ओर अग्रसर होती है।"
बाल्यावस्था में संवेगात्मक विकास (EMOTIONAL DEVELOPMENT DURING CHILDHOOD)
क्रो एवं क़ो के अनुसार- "बाल्यावस्था के सम्पूर्ण वर्षों में संवेगों की अभिव्यक्ति में निरन्तर परिवर्तन होते रहते हैं।" इससे स्पष्ट होता है कि बाल्यावस्था में संवेगात्मक विकास के साथ परिवर्तन भी होते रहते हैं। किस प्रकार से उनकी अभिव्यक्ति होती है वह भी विशेष बात होती है। इस अवस्था में आते ही संवेगों में सामाजिकता का भाव आ जाता है। उन्हें इस बात का ज्ञान होने लगता है कि सामाजिक जीवन में कब, किस प्रकार के भावों को व्यक्त करना उचित है। अर्थात् बालक संवेगों पर नियंत्रण करना आरम्भ कर देते हैं। समाज की प्रशंसा प्राप्त करने और निन्दा से बचने के लिए वे जहाँ प्रेम प्रदर्शित करना होता है वहाँ प्रेम प्रदर्शित करते हैं, जहाँ सहानुभूति प्रदर्शित करना होता है वहाँ
सहानुभूति प्रदर्शित करते हैं और जहाँ द्वेष प्रकट करना होता है वहाँ द्वेष प्रकट करते हैं आदि। बाल्यावस्था में होने वाले संवेगात्मक परिवर्तनों की कुछ प्रमुख विशेषताओं का निम्नवत् उल्लेख किया जा सकता है
1. संवेगों को उग्रता में कमी (Lack of Intensity Emotions) आ जाती है। शैशवावस्था की भाँति उग्र रूप से अभिव्यक्त नहीं होते हैं। समाजीकरण के प्रारम्भ होने के फलस्वरूप बालक संवेगों का दमन करने का प्रयास करता है अथवा उनको शिष्ट ढंग से अभिव्यक्त करता है। माता-पिता, अध्यापक तथा अन्य बड़े व्यक्तियों के समक्ष वह ऐसे संवेगों को प्रकट नहीं करता है, जिसे अवांछनीय समझा जाता है।
2 बाल्यावस्था में, शैशवावस्था की भाँति भय नहीं उत्पन्न होता है। बालकों में भय का सम्बन्ध अधिकतर भावी कार्यों से होता है। जैसे गृह कार्य न करने पर अथवा न पढ़ने-लिखने पर माता-पिता तथा अध्यापक का भय, परीक्षा में सफल होने की चिन्ता एवं असफल होने का भय इसके अतिरिक्त कोई भयानक घटना, बीमारी आदि भी भय का कारण हो सकता है। इस सम्बन्ध में कारमाइकेल का कथन है-"कोई भी बात जो बालक के आत्मविश्वास को कम करती है या उसके आत्मसम्मान को ठेस पहुँचाती है या उसके कार्य में बाधा उपस्थित करती है या उसके द्वारा महत्वपूर्ण समझे जाने वाले लक्ष्यों की प्राप्ति में अवरोध उत्पन्न करती है, उसको चिन्तित और भयभीत रहने को प्रवृत्त कर सकती है।"
3. बाल्यावस्था में परिवार, समाज या विद्यालय के सख्त नियमों चालक में निराशा और असहायपन का भाव बड़ी तीव्रता से पैदा होता है। उन्हें लगता है वे बिल्कुल अकेले हैं, उनका अपना कोई नहीं है। जब बालकों की इच्छाएँ पूरी नहीं होतीं तो वे महसूस करने लगते हैं कि उन्हें कोई प्यार नहीं करता।
4. बालक को अपने कार्य में सुख-दुःख की अनुभूति होती है। सफलता एवं असफलता से में सन्तोष तथा असन्तोष की भावना भी बालक में पाई जाती है।
5. बाल्यावस्था में बालक किसी न किसी समूह का सदस्य होता है। वह उस समूह के कार्यकलापों में भाग लेता है। किसी न किसी कारणवश वह समूह के दूसरे सदस्यों के प्रति ईर्ष्या, द्वेष और घृणा की भावना उत्पन्न हो जाती है, वह दूसरे बालकों के प्रति अपने व्यवहार में इन संवेगों को व्यक्त करने लगता है, यथा-व्यंग करना, चिढ़ाना, झूठे आरोप लगाना, निन्दा करना, तिरस्कार करना आदि।
6 बालक 6-7 वर्ष की आयु से ही अपने वातावरण की वस्तुओं के बारे में ज्ञान प्राप्त करने के लिए जिज्ञासु हो जाता है। उन वस्तुओं से सम्बन्धित भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रश्न करता है। खिलौनों को खोलकर उनके बारे में जानकारी प्राप्त करना चाहता है। इस प्रकार उनमें जिज्ञासा (Curiosity) संवेग का विकास होता है।
7. उत्तर बाल्यावस्था में स्नेह भाव की अभिव्यक्ति प्रारम्भिक बाल्यावस्था की तुलना में कम होती है। वह स्नेह भावना की अभिव्यक्ति उन लोगों के प्रति करता है जो उसके मित्र होते हैं या जिनके साथ रहना चाहता है और सहायता करना चाहता है। स्नेह प्रदर्शित करने का तरीका शैशवावस्था से भिन्न होता है। वह इस भावना को अप्रत्यक्ष रूप से व्यक्त करता है।
8. उत्तर- बाल्यावस्था में प्रफुल्लता की अभिव्यक्ति प्रारम्भिक बाल्यावस्था के समान ही होती है। इस अवस्था में बालक विनोदप्रिय अधिक होता है। व्यंग-विनोद में उसे आनन्द मिलता है। वह असाधारण घटना को देखकर, यथा- किसी को गिरते देखकर किसी को लड़ते या मार-पीट करते देखकर बहुत प्रसन्न होता है।
किशोरावस्था में संवेगात्मक विकास (EMOTIONAL DEVELOPMENT DURING ADOLESCENCE)
इस अवस्था में किशोर-किशोरियाँ बहुत संवेदनशील होते हैं। किशोरावस्था में एक बार फिर संवेगात्मक संतुलन बिगड़ जाता है। इस समय संवेगों में आँधी-तूफान जैसी प्रचण्डता और गति होती है। इसीलिए किशोरावस्था की तूफान और तनाव की अवस्था कहा गया है। जीवन की किसी अन्य अवस्था में संवेगात्मक शक्ति का प्रवाह इतना भीषण नहीं होता जितना कि इस अवस्था में पाया जाता है। एक किशोर के लिए अपने संवेगों पर नियन्त्रण रखना बहुत कठिन होता है। यौन ग्रन्थियों के तेजी से क्रियान्वित होने और शारीरिक शक्ति में पर्याप्त विकास होने से बाल्यावस्था में पाई जाने वाली संवेगात्मक स्थिरता और शान्ति भंग हो जाती है। वे संवेगात्मक दृष्टि से बहुत चंचल और अस्थिर हो जाते हैं।
किशोरावस्था के संवेगात्मक विकास की प्रमुख विशेषताओं का निम्नवत् उल्लेख किया जा सकता है:-
1. किशोरावस्था में संवेगों में अस्थिरता होने के कारण उसे समायोजन करने की समस्या का सामना करना पड़ता है। वह अनुकूल परिस्थितियों में प्रोत्साहन पाता है और प्रतिकूल परिस्थितियों में निराशा पाता है। यह निराशा आत्महत्या की भावना और क्रिया तक पहुँच जाती है। भारतीय मनोवैज्ञानिक बी. एन. झा के अनुसार-“किशोरावस्था का संवेगात्मक विकास इतना विचित्र होता है कि किशोर एक ही परिस्थिति में विभिन्न अवसरों पर विभिन्न प्रकार का व्यवहार करता है। एक अवसर पर उसे उल्लास से भर देती है, वही परिस्थिति दूसरे अवसर पर उसे खिन्न कर देती है।"
2. किशोर का जीवन अत्यधिक भाव-प्रधान होता है। उसमें आत्मसम्मान का स्थायी भाव विकसित हो जाता है। वह किसी भी प्रकार अपने आत्मसम्मान पर लगी ठेस को बर्दाश्त नहीं कर पाता।
3. किशोरावस्था में काम-भावना एक पुनः तीव्र हो जाती है। किशोरों में प्रेम संवेग बढ़ जाता है। वह प्रायः विषमलिंगी के प्रति प्रेम भाव प्रदर्शित करते हैं। यह काम प्रवृत्तियाँ किशोर के संवेगात्मक विकास पर काफी अधिक प्रभाव डालती हैं। बी. एन. झा के अनुसार-“किशोरावस्था में बालक और बालिका, दोनों में काम-प्रवृत्ति अत्यधिक तीव्र हो जाती हैं तथा यह उनके संवेगात्मक व्यवहार पर असाधारण प्रभाव डालती हैं।"
4. किशोरावस्था में प्रेम, दया, क्रोध, सहानुभूति आदि संवेग स्थायी रूप से प्राप्त कर लेते हैं। किशोर इन पर नियन्त्रण नहीं रख पाता है। यही कारण कि अन्यायी व्यक्ति के प्रति वह शीघ्र ही क्रोधित हो जाता है तथा किसी दुःखी व्यक्ति को देखकर उसके प्रति सहानुभूति प्रदर्शित करता है।
5. किशोर में संवेगात्मक स्थिरता का सम्बन्ध उसकी शारीरिक शक्ति से होता है। सबल और स्वस्थ किशोर में संवेगात्मक स्थिरता तथा दुर्बल एवं अस्वस्थ किशोर में संवेगात्मक अस्थिरता देखने को मिलती है।
6. किशोर का जीवन कल्पनाशील होने के कारण दिवास्वप्नों का होता है। वह दिवास्वप्नों में अपने संवेगों की अभिव्यक्ति करता है।
7. इस अवस्था में संवेगों का बाहुल्य होता है। वे अपनी रुझान के अनुसार जिस चरित्र से प्रभावित होते हैं, उसी चरित्र को अपनी जीवन में उतारने का प्रयास करते हैं। ये चरित्र कहानी, उपन्यास, सिनेमा, इतिहास, वर्तमान एवं भूतकालीन राजनीति या रिश्तेदार या पड़ोसी कहीं से भी हो "सकते हैं। किशोर उन्हीं के आदर्शों के अनुसार अपना व्यवहार, बातचीत की शैली, कपड़े पहनने का तरीका या अन्य चीजों को ढालने लगते हैं।
8 सामाजिक समायोजन करने में किशोरों को एक विशेष तरह की समस्या का सामना करना पड़ता है। किशोरों को न तो बालक समझा जाता है और न ही वयस्क वयस्क उन्हें अपने समूह में नहीं गिनते, बाल समूह अपनी गतिविधियों में उन्हें शामिल नहीं करता कि वे बड़े हैं। इससे वे बड़ी दुविधा की स्थिति में पड़कर अपने को समूह से बहिष्कृत मानने लगते हैं। ऐसे किशोरों में अपराध की प्रवृत्ति पैदा होने लगती है।
9. किशोरावस्था में जिज्ञासा की प्रवृत्ति पुनः प्रबल हो जाती है। वह किसी घटना अथवा वस्तु के बारे में 'क्या है ?' के उत्तर से सन्तुष्ट नहीं है, अपितु 'क्यों' और 'कैसे' के उत्तरों के पश्चात् ही अपने को सन्तुष्ट कर पाता है। इससे उसमें दार्शनिक, वैज्ञानिक खोज तथा सत्यान्वेषण की भावना का विकास होता है।
संवेगात्मक विकास को प्रभावित करने वाले कारक (FACTORS INFLUENCING EMOTIONAL DEVELOPMENT)
बालक का संवेगात्मक विकास अनेक कारकों द्वारा प्रभावित होता है। इनमें से प्रमुख कारकों को निम्नवत् प्रस्तुत किया जा सकता है:-
1. स्वस्थ एवं शारीरिक विकास (Health and Physical Development)- शारीरिक विकास एवं स्वास्थ्य का गहरा संवेगात्मक विकास से सम्बन्ध होता है। आन्तरिक व बाह्य दोनों प्रकार की शारीरिक न्यूनताएँ कई प्रकार की संवेगात्मक समस्याओं को जन्म दे सकती हैं। स्वस्थ बालकों की अपेक्षा कमजोर अथवा बीमार बालक संवेगात्मक रूप से अधिक संतुलित एवं असमायोजित पाए जाते हैं। संतुलित संवेगात्मक विकास के लिए विभिन्न ग्रन्थियों का ठीक प्रकार से काम करना आवश्यक है जो केवल स्वस्थ और ठीक ढंग से विकसित हुए शरीर में हो सम्भव है। इस प्रकार शारीरिक विकास की दशा का गहरा प्रभाव संवेगात्मक विकास पर पड़ता है।
2. बुद्धि (Intelligence)-समायोजन करने की योग्यता के रूप में बालक के संवेगात्मक समायोजन और स्थिरता की दिशा में बुद्धि महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इस सम्बन्ध में मेल्टजर (Meltzer) ने अपने विचार प्रकट करते हुए लिखा है-"सामान्य रूप से अपनी ही उम्र के कुशाग्र बालकों की अपेक्षा निम्न बुद्धि स्तर के बालकों में कम संवेगात्मक संयम पाया जाता है। विचार शक्ति, तक शक्ति आदि मानसिक शक्तियों के सहारे ही व्यक्ति अपने संवेगों पर अंकुश लगाकर उनको अनुकूल दिशा देने में सफल हो सकता है। अतः प्रारम्भ से ही बालकों की मानसिक शक्तियाँ, उनके संवेगात्मक विकास को दिशा प्रदान करने में लगी रहती है।"
3. पारिवारिक वातावरण और आपसी सम्बन्ध (Family Environment and Relationship) – परिवार के वातावरण और आपसी सम्बन्धों का भी बालकों के संवेगात्मक विकास के साथ गहरा सम्बन्ध है जो कुछ बड़े करते हैं उसकी छाप बालकों पर अवश्य पड़ती है। अतः परिवार में बड़ों का जैसा संवेगात्मक व्यवहार होता है बालक भी उसी तरह का व्यवहार करना सीख जाते हैं। कलह, लड़ाई-झगड़े से युक्त पारिवारिक वातावरण, क्रोध, भय, चिन्ता, ईर्ष्या आदि कलुषित संवेगों को ही जन्म दे सकते हैं जबकि प्रेम, दया, सहानुभूति और आत्म-सम्मान से भरपूर वातावरण द्वारा बालक में उचित और अनुकूल संवेग स्थायित्व धारण करते हैं। माता-पिता तथा अन्य परिजनों के द्वारा उसके साथ किया जाने वाला व्यवहार भी उसके संवेगात्मक विकास को प्रभावित करता है। यहाँ तक कि परिवार में बच्चों अथवा भाई-बहिनों की संख्या, उसकी पहली, दूसरी या आखिरी सन्तान होना, परिवार की सामाजिक और आर्थिक स्थिति, माता-पिता द्वारा उसकी उपेक्षा या आवश्यकता से अधिक देखभाल या प्यार-दुलार आदि बातें भी बच्चे के संवेगात्मक विकास को बहुत अधिक प्रभावित करती हैं।
4. विद्यालय का वातावरण और अध्यापक (School Environment and Teacher) - विद्यालय का वातावरण भी बालकों के संवेगात्मक विकास पर पूरा पूरा प्रभाव डालता है। स्वस्थ और अनुकूल वातावरण के द्वारा बालकों को अपना संवेगात्मक सन्तुलन बनाए रखने और अपना उचित समायोजन करने में बहुत आसानी होती है। विद्यालय के वातावरण में व्याप्त सभी बातें जैसे-विद्यालय की स्थिति, उसका प्राकृतिक एवं सामाजिक परिवेश, अध्यापन का स्तर, पाठ्यसहगामी क्रियाओं तथा सामाजिक कार्यों की व्यवस्था, मुख्याध्यापक एवं अध्यापकों के पारस्परिक सम्बन्ध और अध्यापको की स्वयं का संवेगात्मक व्यवहार आदि बालकों में संवेगात्मक विकास को पर्याप्त रूप से प्रभावित करती है।
5. सामाजिक विकास और साथियों के साथ सम्बन्ध (Social Development and Peer Group Relationship) - सामाजिक विकास और संवेगात्मक विकास का भी आपस में गहरा सम्बन्ध होता है। बालक जितना अधिक सामाजिक विकास होगा, संवेगात्मक रूप से वह उतना ही परिपक्व संयमशील बनेगा। सामाजिक रूप से अविकसित एवं उपेक्षित बालकों को अपने संवेगात्मक समायोजन में बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। सामाजीकरण की प्रक्रिया (Process of Socialisation) में बालकों का ठीक-ठाक संवेगात्मक विकास और संवेगात्मक व्यवहार अपेक्षित है। उसका पोषण बालक में उचित सामाजिक गुणों के विकास पर भी निर्भर करता है तथा इस दृष्टि से सामाजिक विकास संवेगात्मक विकास को प्रभावित करने में पूरी-पूरी भूमिका निभाता है।
6. पास-पड़ोस, समुदाय और समाज (Neighbourhood, the Community and the Society)-परिवार के अतिरिक्त बालकों का अपना पड़ोस, समुदाय और समाज जिसमें वह रहता है, उसके संवेगात्मक विकास को बहुत प्रभावित करते हैं। अपने संवेगात्मक व्यवहार से सम्बन्धित सभी अच्छे बुरे संवेग और आदतों को वह इन्हीं सामाजिक संस्थाओं के माध्यम से ग्रहण करता है। एक साहसी और निर्भय जाति या समुदाय में पैदा होने वाले अथवा ऐसे वातावरण में पलने वाले बच्चे में भी साहस और निर्भयता के गुण आ जाना स्वाभाविक ही है। जिस समाज में बड़े लोग शीघ्र ही उत्तेजित होकर गाली-गलौज और मार-पीट करते रहते हैं, उनके बच्चे भी अनायास ऐसी ही संवेगात्मक कमजोरियों का शिकार हो जाते हैं। भय, ईर्ष्या, घृणा, क्रोध, प्रेम, सहानुभूति, दया आदि सभी तरह के अच्छे और बुरे संवेगात्मक गुण अच्छे और बुरे सामाजिक परिवेश के परिणाम होते हैं।
संवेग बालकों के व्यक्तित्व के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उनका शारीरिक, मानसिक, सामाजिक तथा नैतिक सभी प्रकार का विकास और व्यवहार उनके संवेगों द्वारा प्रभावित होता है। पूर्व अनुभव और प्रशिक्षण के अभाव में संवेग अभाव में अपने उन्मुक्त रूप में व्यक्ति और समाज, दोनों के लिए अहितकर सिद्ध हो सकते हैं। इन्हें समाज और व्यक्ति दोनों के लिए हितकर बनाना आवश्यक है। इसके लिए शिक्षा के क्षेत्र में संवेगों के प्रशिक्षण पर विशेष बल दिया गया है।
एरिक्सन का मनोसामाजिक सिद्धान्त (ERIKSON'S PSYCHOSOCIAL THEORY)
मनोसामाजिक सिद्धान्त का प्रतिपादन एरिक्सन (1963) द्वारा किया गया है। ये भी मनोविश्लेषणवादी ही रहे हैं। परन्तु इनका विचार है कि विकास में जैविक कारकों की अपेक्षा सामाजिक कारकों की भूमिका अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण होती है। बच्चे को अपने जीवन में जिस प्रकार की सामाजिक अनुभूतियाँ होंगी, उसमें उसी के अनुरूप विकास के प्रतिमान भी प्रदर्शित होंगे। फ्रायड की भाँति एरिक्सन का भी मत है कि विकास की किसी एक अवधि में बालक को जो अनुभव होता है वह आगामी विकास को भी प्रभावित करता है। इसीलिए इनका मॉडल मनोसामाजिक मॉडल कहा जाता है (देखिये चित्र 7.1)
एरिक्सन का मॉडल चित्र 7.1 में प्रस्तुत है। इसमें कुल आठ अवस्थाएँ हैं। इस मॉडल पर तालिका 7.2 से भी पर्याप्त प्रकाश पड़ रहा है।
चित्र 7.1 : एरिक्सन के अनुसार विकास की अवस्थाएँ, जिन्हें उन्होंने मनोसामाजिक अवस्थाएँ (Psychosocial stages) का नाम दिया है। विकास प्रगामी (Progressive) होता है। वह उत्तरोत्तर जटिल (Complex) होता जाता है।
एरिक्सन ने इदम् (Id) की अपेक्षा अहम् (Ego) को विकास के लिए अधिक महत्वपूर्ण बताया है और यह मानते हैं कि समझ आ जाने पर व्यक्ति वास्तविकताओं की परख करके जीवन को सन्तुलित बना सकता है। इनके अनुसार बालक का सामाजिक परिवेश शीघ्र ही माता-पिता के अतिरिक्त अन्य लोगों तक फैलने लगता है और वे उसके व्यवहार को प्रभावित करते हैं।
एरिक्सन का भी सिद्धान्त कई अवस्थाओं में विभक्त है (तालिका 3.2)। प्रत्येक अवस्था में वांछित एवं अवांछित विशेषताएँ (तत्त्व) विकसित होती हैं। जिस व्यक्ति में वांछित पक्ष (जैसे—आस्था, स्वायत्तता, परिश्रम एवं उत्पादकता आदि) अधिक होते हैं उसका समायोजन अच्छा होता है। इसके विपरीत अवांछित तत्वों (जैसे- अनास्था, शर्म, हीनता एवं निराशा आदि) का आधिक्य होने पर व्यवहार में विकृतियाँ पैदा होती हैं तथा विकास एवं समायोजन बाधित होता है।
विकास की अवस्थाओं का आशय (MEANING OF THE STAGES OF DEVELOPMENT)
एरिक्सन के व्यक्तित्व विकास के सिद्धान्त में आठ अवस्थाएँ सन्निहित हैं-
(i) आस्था बनाम अनास्था की अवस्था (Trust vs Mistrust Stage)— विकास की पहली अवस्था का प्रसार जन्म से प्रथम वर्ष तक माना गया है। इस अवस्था में बालक माता-पिता के ही सम्पर्क में अधिक रहता है और सामाजिक परिवेश सीमित होता है। माता-पिता का प्यार पाने के कारण उसमें | उनके प्रति आस्था विकसित होती है, परन्तु ऐसा न होने की दशा में उसमें अनास्था (अविश्वास पैदा होती है एवं उसका व्यवहार असमायोजित होने लगता है। जिस मानसिक भाव से वह अगली अवस्था में प्रवेश करेगा, उसका उस अवस्था में होने वाले विकास पर प्रभाव अवश्य पड़ेगा।
तालिका 7.2 : एरिक्सन के अनुसार विकास की अवस्थाएँ | |||
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मनोसामाजिक अवस्थाएं (Stages)
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मनोसामाजिक विशेषताएँ | महत्वपूर्ण सम्बन्धों का क्षेत्र | अनुकूल परिणाम |
1. जन्म से प्रथम वर्ष
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आस्था बनाम अनास्था | माँ या उसका विकल्प | अन्तर्वोद (प्रेरणा) एवं आशा |
2. द्वितीय वर्ष | स्वायत्तता बनाम शर्म, सन्देह | माता-पिता | आत्म-नियंत्रण एवं इच्छा शक्ति |
3. 3-5 वर्ष | पहल (उपक्रम) बनाम पाप (ग्लानि) | मूल परिवार | निर्देश एवं उद्देश्य |
4. छठवें वर्ष से | परिश्रम बनाम हीनता | पड़ोस, विद्यालय | विधि एवं सक्षमता |
5. किशोरावस्था (13-18 वर्ष) |
अस्तित्व बनाम भूमिका द्वन्द्व
|
समकक्ष समूह एवं बाह्य समूह, नेतृत्व के आदर्श व्यक्ति
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समर्पण एवं निष्ठा |
6. प्रारम्भिक प्रौढ़ावस्था (19-35 वर्ष)
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आत्मीयता बनाम पार्थक्य | मित्रता, यौन प्रतिस्पर्द्धा, सहयोग |
सम्बन्धन एवं प्यार
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7. युवा एवं मध्य
प्रौढ़ावस्था (36-55 वर्ष)
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उत्पादकता बनाम निष्क्रियता
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विभाजित श्रम एवं घरेलू भागीदारी |
उत्पादन, परवाह चिन्ता
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8. उत्तर प्रौढ़ावस्था (55+)
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सत्यनिष्ठा बनाम नैराश्य | मानवतावाद | त्याग, विवेक |
(ii) स्वायत्तता बनाम सन्देह (Autonomy vs Doubt) इस अवधि का प्रसार प्रथम से द्वितीय वर्ष तक माना गया है। इस अवस्था में भी बालक के सामाजिक परिवेश में मूलत: उसके माता पिता ही होते हैं। उसमें अपने पर्यावरण की वस्तुओं के प्रति जिज्ञासा बढ़ती है। उसमें आत्म-नियंत्रण एवं इच्छा शक्ति का प्रस्फुरण होने लगता है। उसकी उचित देखरेख होने एवं प्यार अपनत्व मिलने पर उसमें आत्मविश्वास बनता है और दण्डित किये जाने पर उपेक्षित किये जाने पर शर्म, हीनता एवं निराशा बढ़ सकती है। यदि किसी बात पर उसकी हँसी उड़ाई जाती है, तो उसमें अपनी क्षमता के बारे में सन्देह होने लगेगा और इसका विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।
(iii) पहल बनाम ग्लानि (Initiative vs Guilt)-तृतीय अवस्था का प्रसार तीसरे से पाँचवें वर्ष तक माना जाता है। इस अवस्था में बालक का सामाजिक दायरा बढ़ता है। उसके परिवेश में माता-पिता के साथ-साथ अन्य सदस्य भी उसे महत्त्वपूर्ण लगने लगते हैं। अत: उसके मनोभावों पर पड़ने वाले प्रभावों से सम्बन्धित परिवेश विस्तृत होने लगता है। उसमें जिम्मेदारी की भावना तथा कुछ करने की अभिलाषा जाग उठती है। यदि कार्यों में उसे सफलता मिलती है तथा अन्य लोगों की प्रशंसा पाता
है तो उसमें पहल करने की प्रवृत्ति बढ़ती है और असफल होने पर या निन्दा किये जाने पर वह स्वयं को दोषी या अपराधी मानने लगता है। यदि ऐसा हुआ तो वह परिश्रम से जान बचाने का प्रयास कर सकता है और उसका व्यक्तित्व यथोचित रूप में उभर नहीं पायेगा। अतः उसमें कार्य के प्रति दिलचस्पी बनाये रखने का प्रयास करना चाहिए।
(iv) परिश्रम बनाम हीनता ( Industry vs Inferiority)—इस अवस्था का प्रसार छठवें वर्ष से यौवनारम्भ तक माना गया है। यदि पिछली अवस्था में बालक को सफलता तथा अनुमोदन मिलता रहा है, तो वह कार्यों में अधिक रुचि लेगा अन्यथा हीनता भाव से ग्रस्त होकर जान बचाने का प्रयास करेगा। अतः उसे सीखने तथा कौशल अर्जन के लिए अधिक से अधिक प्रोत्साहित करना चाहिए ताकि वह एक योग्य सामाजिक प्राणी बन सके।
(v) अस्तित्व बनाम भूमिका द्वन्द्व (Identity vs Role Conflict) इस अवस्था का प्रसार किशोरावस्था की अवधि तक (13-18 वर्ष) माना गया है। इस अवस्था के आते आते बालक काफी समझदार हो चुका होता है तथा अपना प्रभावशाली अस्तित्व (पहचान) कायम करना चाहता है। वह अपना लक्ष्य निश्चित कर सकने की योग्यता रखता है तथा निर्धारित कार्यक्रमानुसार भूमिका निभाता भी है। परन्तु ऐसे बालक जो अपना अस्तित्व स्थापित करने में सफल नहीं हो पाते हैं और अपना लक्ष्य भी निश्चित नहीं कर पाते हैं वे द्वन्द्व की स्थिति में पड़ जाते हैं। अतः उनका समायोजन विघ्नित हो सकता है। उनमें कर्त्तव्यपरायणता तथा निष्ठा का विकास अवरोधित हो जाता है।
(vi) आत्मीयता बनाम पार्थक्य (Affiliation vs Isolation)—इस अवधि का प्रसार 19 से 35 वर्ष के आसपास तक माना गया है। इसमें मित्रता का प्रसार होता है, प्रतिस्पर्द्धा तथा सहयोग की भावना बढ़ती है तथा लैंगिकता का भी प्रभाव बढ़ता है। इसके परिणामस्वरूप अन्य लोगों के प्रति सम्बन्ध एवं प्यार की भावना बलवती होती जाती है। इसके विपरीत निराशा, असफलता, हीनता एवं द्वन्द्व होने पर एकाकीपन की प्रवृत्ति बढ़ती है। व्यक्ति अन्य लोगों से कटा-कटा-सा रहने लगता है और सामाजिक समायोजन तथा उपलब्धि का स्तर घटिया हो जाता है।
(vii) उत्पादकता बनाम निष्क्रियता (Productivity vs Inaction)– इस अवधि का प्रसार 36 से 55 वर्ष तक माना गया है। इस अवधि में व्यक्ति समाज का एक सक्रिय सदस्य बन चुका होता है तथा उसकी भूमिकाएँ काफी बढ़ जाती है। घरेलू उत्तरदायित्व, सामाजिक जिम्मेदारियाँ एवं व्यक्तिगत लक्ष्य व्यक्ति को कार्य या उद्देश्य के प्रति तत्पर बनाते हैं। इस प्रकार उसकी क्षमता विभाजित हो जाती है। समाज व्यक्ति से अपेक्षा करता है कि वह अपनी भूमिकाओं का समुचित निर्वाह करके सामाजिक कल्याण में अपना योगदान देगा। इसके विपरीत, निष्क्रियता या आत्म-तन्मयता की प्रवृत्ति से ग्रस्त •व्यक्ति उत्पादक या सृजनात्मक कार्यों में रुचि नहीं लेता है। वह योगदान देने के बजाय समूह या समाज पर बोझ बन जाता है।
(viii) सत्यनिष्ठा बनाम नैराश्य (Integrity vs Despair)–एरिक्सन के मनोसामाजिक सिद्धान्त की इस अन्तिम अवस्था का शुभारम्भ 55वें वर्ष से माना गया है तथा यह जीवनपर्यन्त चलती रहती है। यह वह उम्र है जब बुढ़ापा सामने खड़ा होता है, व्यक्ति सक्रिय जिन्दगी से हटने की दशा में पहुँच जाता है और उसे अपना अतीत तथा उसकी उपलब्धियाँ आदि रह-रहकर याद आने लगती है। इस प्रकार वह आत्म- मूल्यांकन करने लगता है। यदि उसके मन में यह भावना आती है कि उसका अतीत सुखमय एवं उपलब्धियों से भरपूर रहा है तो वह शेष जीवन उत्साह एवं उमंग के साथ बिता सकता है। परन्तु यदि वह जीवन की अधिकतर अवस्थाओं में असफल रहा है तो निराशा एवं चिन्ता उसके शेष जीवन को भी कष्टमय बना देगी।
मूल्यांकन (Evaluation)
● एरिक्सन ने विकास की व्याख्या के लिए एक अपेक्षाकृत अधिक व्यापक सिद्धान्त प्रतिपादित करने का प्रयास किया है फिर भी इसमें कुछ विशेष दोष हैं, जैसे
● एरिक्सन का यह मत कि यदि किसी अवस्था में कोई कमी रह गयी है तो वह आगे भी बनी रहेगी, उचित नहीं लगती है।
● क्योंकि उचित परिस्थितियाँ उत्पन्न करके अतीत की कमियाँ दूर की जा सकती हैं।
● फिर भी यह सिद्धान्त काफी आकर्षक है तथा इसकी मान्यताओं को वैज्ञानिक स्तर पर परखने की आवश्यकता है।
अध्यापकों के लिए संवेगात्मक विकास के निहितार्थ (IMPLICATIONS OF EMOTIONAL DEVELOPMENT FOR TEACHERS)
बालक के संवेगों के विकास पर ही बालक का शारीरिक, मानसिक व चारित्रिक विकास निर्भर होता है। शिक्षा का कार्य है कि सभ्य, सुशिक्षित, संस्कारित, अनुशासित और बहुआयामी व्यक्तित्व वाले नागरिकों का विकास करे। उचित रूप से संवेगों का प्रदर्शन व नियन्त्रण करने में सफल बालक स्वयं और समाज दोनों के लिए हितकारी होते हैं। संवेगों के प्रशिक्षण में अध्यापकों की प्रमुख भूमिका होती है। बालक का व्यवहार उसके व्यक्तित्व का निर्धारण करता है और व्यवहार और व्यवहार संवेगों को उपस्थिति से प्रभावित होता है। संवेगों का उचित विकास नहीं होता है तो बालक का सम्पूर्ण व्यक्तित्व विघटित हो सकता है। आवश्यकता इस बात की है कि अध्यापक विद्यार्थियों के संवेगात्मक विकास में सहायक बने। अतः अध्यापक को बालक के संवेगात्मक विकास और संवेग प्रशिक्षण विधियों से अवगत होना आवश्यक है तभी वह अपने दायित्व को पूर्ण करने में सफल हो सकता है। अध्यापकों के लिए संवेगात्मक विकास के निहितार्थों को निम्न बिन्दुओं में प्रस्तुत किया जा सकता है
1. अध्यापक को शिक्षण की ऐसी व्यवस्था बनानी चाहिए जिसमें विद्यार्थी खुलकर अपने संवेगों की अभिव्यक्त कर सकें और उनके मन में शैक्षणिक गतिविधियों के प्रति व्याप्त भय व चिन्ताएँ दूर हो सकें।
2. विद्यार्थियों को अपने संवेगों की अभिव्यक्ति के प्रोत्साहित करना अध्यापकों का कर्तव्य है और इसके लिए अध्यापकों को ऐसे अवसर सृजित करना चाहिए जिससे विद्यार्थियों की झिझक समाप्त हो सके।
3. अध्यापकों को ध्यान रखना चाहिए कि बालक के संवेगों के विकास किए बिना उनका बौद्धिक विकास करना सम्भव नहीं है। अध्यापक को अपने अन्दर यह क्षमता पैदा करनी चाहिए कि वह कक्षा या कक्षा के बाहर विषम परिस्थितियों में भी अपना भावनात्मक सन्तुलन बनाए रखे तथा सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाए जिससे वह बालकों के साथ समुचित व्यवहार कर सकेगा।
4. अध्यापकों को चाहिए कि विद्यार्थियों के माता-पिता से निरन्तर सम्पर्क बनाए रखें। विद्यार्थियों के संवेग प्रशिक्षण में माता-पिता का सहयोग प्राप्त करने के साथ-साथ विद्यार्थियों की शारीरिक कमजोरियों, न्यूनताओं, बीमारियों आदि से अवगत हो, जिससे विद्यार्थियों के लिए उचित निर्देशन एवं परामर्श दे सके।
5. अध्यापकों को माता-पिता को स्पष्ट रूप से अवगत कराना चाहिए कि बालक के संवेगात्मक विकास पर पारिवारिक वातावरण का बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। बालकों को अनुकूल वातावरण प्रदान करने के लिए माता-पिता को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
6. अध्यापक की सम्बोधन क्षमता, वैयक्तिक आकृति, संयम, उत्साह, मानसिक निष्पक्षता, शुभचिन्तन, सहानुभूति बालक के संवेगों को प्रशिक्षित करने में सहायक होती है।
7. पाठ्यसहगामी क्रियाओं का बालक के संवेगात्मक विकास में बड़ा योगदान होता है। इन कार्यक्रमों के द्वारा बालकों को आत्माभिव्यक्ति, स्वयं को तथा दूसरों को जानने की समझदारी, स्वयं की रुचियों को व्यापक बनाने, स्वयं के कार्यों को नियन्त्रित करने के अवसर प्राप्त होते हैं। अध्यापकों को पाठ्यसहगामी क्रियाओं के आयोजन में विशेष रुचि लेनी चाहिए।
8. गृहकार्य प्रदान करते समय अध्यापकों को बालकों की आयु और व्यक्तिगत भिन्नताओं को ध्यान में रखना चाहिए।
9. अध्यापक को शिक्षण विधियों का चयन और शिक्षण कार्य में यह ध्यान रखना चाहिए कि बालक की संवेगात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके।
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