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नैतिक विकास Moral Development

नैतिकता का अर्थ (MEANING OF MORALITY)

मानवीय क्रियाकलापों को निर्देशित करने वाले विश्वास, मूल्य और सिद्धान्त ही नैतिकता कहलाते हैं। नैतिकता दो रूपों में मानवीय क्रियाकलापों को निर्देशित करती है-

(i) सकारात्मक व्यवहार का निर्देश देकर (Prescribing positive behaviour)- सकारात्मक व्यवहार से हमेशा दूसरों को लाभ पहुँचता है। इस तरह के व्यवहार सामाजिक व्यवहार कहलाते हैं। दूसरों को भागीदार बनाना, दूसरों की सहायता करना और दूसरों के दुख बाँटना सामाजिक व्यवहार है। इस तरह के व्यवहार और क्रियाओं को अच्छा समझा जाता है और बनाए रखने का प्रयास किया जाता है। 
(ii) नकारात्मक क्रियायें (Prescribing negative actions) - नकारात्मक क्रियायें हमेशा दूसरों को हानि पहुँचाते हैं। इस तरह की क्रियायें दूसरों की प्रगति में बाधा डालती हैं, दूसरों को दुःख और अपमान देते हैं। दूसरों के अधिकारों का हनन करना, दूसरों को घायल करना, शारीरिक और मनोवैज्ञानिक क्षति पहुँचाना आदि नकारात्मक क्रियायें हैं, जिन्हें बुरा समझा जाता है प्रयास किया जाता है कि कोई ऐसा न करें।

साधारण भाषा में कहा जा सकता है कि परिवार, समाज व समूह के नैतिक नियमों का अनुपालन करना ही नैतिकता है। नैतिकता के अन्तर्गत समाज द्वारा निर्धारित व्यवहार और आदर्श आते हैं, व्यक्ति के कार्य और व्यवहार नैतिकता से सम्बद्ध हो जाते हैं। नैतिकता की कोई निर्धारित परिभाषा नहीं दी जा सकती, इसके विकास में विद्यालय और अध्यापक, परिवार, पड़ोस, समूह, समुदाय और समाज की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

नैतिकता से अभिप्राय सामाजिक समूह के नैतिक नियमों को स्वीकार करने से है। Moral शब्द लैटिन भाषा में मोरेस (Mores) शब्द से निकला है जिसका तात्पर्य है रीति (Manners), रिवाज (Customs) अथवा लोकरीति (Folkways)। नैतिक रूप से कार्य करने का अर्थ है-समूह में आचरण के प्रति आस्था होना और अनैकिता से तात्पर्य है-सामाजिक आदर्शों का पालन करने में असमर्थ होना।
अनैतिक व्यवहार समूह के अनुरूप नहीं होता। इसका यह अर्थ नहीं कि उससे व्यक्ति की हानि होती है | अथवा व्यक्ति जानबूझकर अनैतिक कार्य करता है अपितु सामाजिक मर्यादाओं का ज्ञान न होना भी इसका कारण है।

नैतिकता सामाजिक नियन्त्रण का साधन है। समाज-सम्मत व्यवहार तथा आदर्शों का सम्मिलित रूप ही नैतिकता का स्वरूप धारण करता है। समाज के आदर्शों के प्रति स्वेच्छा से आचरण करना इसका ध्येय है। बाहर से अन्दर की ओर अधिकार की पुष्टि ही इसका ध्येय है। भय न होकर स्वेच्छा ही इसके आचरण का आधार है। व्यक्ति की भावनाएँ कार्य से जुड़ जाती है। किसी भी कार्य को करते समय व्यक्ति यह सोच लेता है कि यह कार्य अनैतिक तो नहीं है। सच्ची नैतिकता इतनी जटिल होती है कि वह बच्चों में नहीं पायी जाती। नैतिकता में दो प्रकार के उच्चतम दृष्टिकोण निहित होते हैं-(1) बौद्धिक, (2) स्नायुविक बालक को यह जानना आवश्यक हो जाता है कि वह यह जाने कि क्या सच है और क्या झूठ। क्या गलत है और क्या सही। साथ ही उसमें यह भावना भी विकसित होनी चाहिए कि वह सही कार्य करे और गलत का बचे।

एल्डरिच के अनुसार, “बालक जब भी किसी कार्य को करने की इच्छा करता है तो उसे समाज से स्वीकृति प्राप्त करना आवश्यक हो जाता है। जब भी सामाजिक नियमों और व्यक्तित्व व्यवहार में संघर्ष उत्पन्न है तब नैतिक रूप से परिपक्व व्यक्ति उसके सन्तोष के लिए संघर्ष की स्थिति को कुशलतापूर्वक सँभाल लेता है।"

नैतिक विकास (MORAL DEVELOPMENT)

विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने नैतिक विकास भिन्न-भिन्न तरीके से प्रस्तुत किया है। मनोविश्लेषक सिगमण्ड फ्रायड (1856-1989) के अनुसार- "नैतिकता अपराध-बोध और शर्म से बचने से उत्पन्न होता है और इसका विकास सुपर- ईगो का उत्पाद है।"
"Morality is rooted in the avoidance of guilt and shame and its development is a product of the super-ego." -Sigmund Freud 

मार्टिन हॉफमैन और जोनाथन हैट जैसे कुछ विकासात्मक और सामाजिक मनोवैज्ञानिक संवेगों को नैतिकता का आधार मानते हैं। हॉफमैन का मानना है कि इन नैतिक संवेगों का उत्पत्ति हजारों वर्ष पहले हुई है, इसे 'पूर्वजों का वातावरण' (ancestral environment) या 'क्रमिक विकास के अनुकूलन का वातावरण' (environment of evolutionary adaptation) कहते हैं। 21वीं सदी में नैतिकता के विकास की जो अवधारणा व्याप्त है वह सालों पहले, जैविक व विकास के आधार पर, चार्ल्स डार्विन ने दिया था।

व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिकों, सुप्रसिद्ध बी. एफ. स्किनर (1904-1990), ने नैतिकता के उदय और विकास के बारे में बिल्कुल अलग विचार दिए हैं कि बालक जब जन्म लेता है तो उसका मस्तिष्क कोरे स्लेट (blank slate) की तरह होता है, उसमें कोई जन्मजात नैतिक संवेग नहीं होते। सभी प्रकार के अधिगम और नैतिकता का उदय उसके अनुभवों और अनुभवों के परिणाम से होता है। नैतिकता का कोई जैविक आधार नहीं होता और न ही यह संवेग, अन्तःकरण और निर्णय से प्रेरित होता है। नैतिकता केवल वह व्यवहार है जो पुरस्कार से उन्नत होता है और दण्ड से नियन्त्रित होता है।
महत्वपूर्ण बात यह है कि 1960 से नैतिक मनोविज्ञान के क्षेत्र में 'विकासात्मक मनोवैज्ञानिकों' का ही दबदबा है। जीन पियाजे (1896-1980) ने नैतिक निर्णय पर शोध कार्य किया, लॉरेन्स कोहलवर्ग (1969) ने नैतिक चिन्तन और निर्णय के लिए त्रिस्तरीय छः अवस्था वाली संज्ञानात्मक संरचनात्मक मॉडल (three-level, six stage cognitive-structural model) का निर्माण किया व्यवहारवादियों की दृष्टिकोण की तरह, संज्ञानात्मक संरचनात्मक (Cognitive-structuralism) के अनुसार भी नैतिक अधिगम में वातावरण की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। नैतिक मनोविज्ञान और शिक्षा के क्षेत्र में कोहलबर्ग का अध्ययन और शोध 1980 से अति महत्वपूर्ण साबित हुआ। 

पियाजे का सिद्धान्त (Piaget's Theory)

नैतिक विकास की व्याख्या के लिए पियाजे ने अपने सिद्धान्त में दो अवस्थाओं का उल्लेख किया है एवं नैतिकता के सम्यक् विकास के लिए संज्ञानात्मक योग्यताओं के विकास को महत्वपूर्ण बताया है। 

प्रथम अवस्था को परतन्त्र नैतिकता (Heteronomous Morality) कहते हैं। इस अवस्था में बच्चों में तर्क क्षमता का विकास कम हुआ रहता है, अत: उनके मन में धारणा बनी रहती है कि नैतिक नियम परिवर्तनशील नहीं होता है और अपने व्यवहार के परिणाम (Outcome) से व्यवहार के वांछित होने का अनुमान लगाते हैं। इससे उनका व्यवहार परिमार्जित होता है (Piaget, 1965, 1970 1971)।

दूसरी अवस्था को स्वायत्त नैतिकता (Autonomous Morality) कहते हैं। यह अवस्था लगभग सात वर्ष के बाद की है। इस अवस्था में संज्ञानात्मक विकास काफी सीमा तक हो चुका होता है। बच्चे यह महसूस करने लगते हैं कि नैतिकता के नियमों में अन्य लोगों की सहायता से कुछ न कुछ परिवर्तन सम्भव है। वे दूसरों की भावनाओं एवं इरादों की अविश्वसनीयता का भी अपेक्षाकृत अधिक सटीक अनुमान लगा लेते हैं।

कोहलबर्ग का संज्ञानात्मक संरचनात्मक मॉडल (KOHLBERG'S CONGNITIVE STRUCTURAL MODEL)

बीसवीं शताब्दी के अन्तिम चौथाई समय में, जब कोहलबर्ग का सिद्धान्त नैतिकता के विकास के अध्ययन क्षेत्र को प्रभावित कर रहा था, 'नैतिक आत्म-समझ और पहचान (moral self-understanding and identity) के विकास के क्षेत्र में अत्यधिक कार्य हुआ। 1980 में जब ऑगस्टो ब्लासी ने नैतिक संज्ञान और नैतिक क्रियाओं पर व्यावहारिक शोध कार्य किया तो पूरी दुनिया का ध्यान नैतिक-पहचान और इसकी भूमिका पर गया। नैतिक निर्णय और नैतिक व्यवहार के मध्य सापेक्षिक सम्बन्धों को व्याख्यायित करने के बाद ब्लासी ने कहा कि इन दोनों के मध्य का अन्तर नैतिक पहचान के आधार पर समझा जा सकता है। जिन लोगों में नैतिक आत्म-पहचान का सशक्त विकास होता है वे अपने नैतिक निर्णय के आधार पर व्यवहार करने में सफल होते हैं। ब्लासी के शोध और अध्ययन को कोहलबर्ग ने आगे बढ़ाया। कोहलबर्ग ने कनाडा, मैक्सिको, ताइवान, टर्की जैसे विविध देशों में 75 पुरुषों पर देशान्तर सांस्कृतिक (cross-cultural) अध्ययन किया और पाया कि नैतिक विकास तीन स्तरों, छ: अवस्थाओं में होता है। प्रत्येक स्तर में दो अवस्थाएँ होती हैं, जो व्यक्ति के चिन्तन के तरीके का वर्णन करती है और इन तरीकों के नैतिक आधार का वर्णन करती हैं। कोहलबर्ग ने निम्न छः अवस्थाओं का वर्णन किया है:-

प्रथम अवस्था विकास का पूर्व परम्परागत स्तर (Preconventional level of development) इस अवस्था में बहुत अधिक अहम् (ego) केन्द्रित चिन्तन पाया जाता है, उस क्रिया को अच्छा माना जाता है जिसका परिणाम स्वयं के लिए अच्छा हो। इस अवस्था में चिन्तन का अत्यधिक आदिम स्वरूप होता हैं, किसी क्रिया के भौतिक परिणाम के आधार पर उसे अच्छा या बुरा समझा जाता है, उस कार्य के मूल्य पर ध्यान नहीं दिया जाता।

द्वितीय अवस्था विकास का परम्परागत स्तर (Conventional level of development)- इस अवस्था में उन कार्यों को अच्छा मानते हैं जिनमें स्वयं के साथ-साथ दूसरों की आवश्यकताएँ भी सन्तुष्ट हो सकें। कार्य में ईमानदारी तो होती है परन्तु ईमानदारी का स्वरूप भौतिक होता है, उदाहरणार्थ, 'तुमने मुझे थप्पड़ मारा है, मैं भी मारूंगा।' इस अवस्था में व्यक्ति की नैतिकता में उसके परिवार, समूह या समाज की अपेक्षाओं, नियम और तिमानों की झलक होती है।

तृतीय अवस्था अच्छे लड़की लड़के का अभिमुखीकरण (Good boy-good girl orientation)- इस अवस्था में किसी भी व्यक्ति को आम सामाजिक धारणा के अनुरूप अच्छा समझा जाता है; जैसे-अच्छा बेटा होने का मतलब है माँ के हर काम में मदद करना अच्छा पति वही है जो अपनी पत्नी के लिए अपनी सुरक्षा दाँव पर लगा दे।

चतुर्थ अवस्था नैतिक तर्क का उच्चतम स्तर (Higher level of abstraction in moral reasoning)-यह नैतिक तर्कों का उच्चतम स्तर है। पारिवारिक भूमिका और अपेक्षाओं के बजाय नियम और कानून पर अधिक ध्यान रहता है। अपने अधिकारी का सम्मान करना और सामाजिक प्रणाली को बनाए रखना किसी व्यक्ति के लिए सही व्यवहार होता है। सामाजिक प्रणाली का अर्थ है- धार्मिक और कानूनी प्रणाली।

पंचम अवस्था विकास का पश्चपरम्परागत स्तर (Postconventional level of development)- इस अवस्था में प्रदत्त परम्पराएँ और मानक नैतिक सिद्धान्तों और मूल्यों की ओर खिसकती हैं। इस अवस्था में 'सामाजिक अनुबन्ध अभिमुखीकरण' (Social-contract orientation) प्राप्त होता है। सामान्य अधिकारों और मानकों के आधार पर ही किसी कार्य को अच्छा समझा जाता है। इस अवस्था में व्यक्तिगत मूल्यों और दृष्टिकोण के प्रति स्पष्ट जागरूकता होती है। लोगों की सहमति प्राप्त करने पर अत्यधिक बल दिया जाता है, बने बनाए नियमों को केवल मानने की ही नहीं, बदला देने की भी सम्भावना होती है। इस बदलाव के लिए पूरे समाज का उपयोग किया जाता है।

षष्ठम् अवस्था : नैतिक विकास की पराकाष्ठा (Pinnacle of moral development)- इस अवस्था में नैतिक विकास की पराकाष्ठा होती है। वैश्विक नैतिक सिद्धान्तों के आधार पर तर्क दिए जाते हैं। सबसे महत्वपूर्ण सिद्धान्त होता है-'जीवन के लिए सम्मान'। इस अवस्था में प्रत्येक व्यक्ति के जीवन को अमूल्य समझा जाता है, चाहे वह किसी भी जाति, वर्ग, समुदाय का हो।

कोहलबर्ग के मॉडल की समीक्षा (CRITICISMS OF KOHLBERG'S MODEL)

कोहलबर्ग के मॉडल में भी कुछ सीमाएँ परिलक्षित होती हैं, जिनमें से तीन सीमाओं पर आलोचकों ने अधिक ध्यान दिया है:-

1. लिंग भेद (Gender bias)- हार्वर्ड विश्वविद्यालय के अपने ही शोध-समूह के साथियों ने यह आलोचना प्रस्तुत की। 1970 के दर्शक के अन्तिम वर्षों में कैरोल गिलीगन (Carol Gilligan) ने कोहलवर्ग के सिद्धान्त में लिंग भेद की बात कही कि इस मॉडल में पुरुषों के मूल्यों और गुणों को अधिक महत्व दिया गया है, जबकि महिलाओं से जुड़े गुणों और परम्परागत मूल्यों पर कम ध्यान दिया गया। गिलीगन के अनुसार पुरुष न्याय को अधिक ध्यान में रखते हैं और महिलाएँ दूसरों के देखभाल पर अधिक ध्यान देती है।

परन्तु बहुत से मनोवैज्ञानिकों ने यह माना कि गिलिन की आलोचना थोड़ी-बहुत तो ठीक है, परन्तु पूरी तरह ठीक नहीं है, महिलाएँ भी न्यायप्रिय होती हैं, यह अवश्य है कि उनमें देखभाल करने का गुण अधिक होता है।

2. सांस्कृतिक अन्तर (Cultural differences)-कोहलबर्ग के मॉडल के अनुसार विश्व के सभी लोगों (आदिम जनजाति से लेकर विकसित शहरों तक) का नैतिक विकास छः अवस्थाओं से होकर गुजरता है। आलोचनकर्ताओं का मत है कि आयु, जेन्डर, प्रजाति आदि के सापेक्षिक महत्व को नैतिक विकास के सन्दर्भ में नकारा नहीं जा सकता।

3. विचार क्रिया समस्या ( The thought/action problem)- कोहलबर्ग के अनुसार नैतिक निर्णय व्यक्ति के कार्य का शक्तिशाली और अर्थपूर्ण भविष्यवक्ता होता है। बहुत से मनोवैज्ञानिक इस तथ्य से सहमत नहीं है, उनके अनुसार व्यक्ति जानता है कि कोई कार्य गलत है, फिर भी करता है। उदाहरणार्थ, विद्यार्थी जानते हैं कि परीक्षा में नकल करना गलत है, फिर भी नकल करते हैं। नैतिक निर्णय किसी कार्य को करने के पीछे अकेला कारक नहीं होता, अन्य कारक भी सम्मिलित होते हैं।

विभिन्न अवस्थाओं में नैतिक विकास (MORAL DEVELOPMENT IN VARIOUS STAGES)

नैतिक विकास अन्य अवस्थाओं में जिस प्रकार विकसित होता है उसका एक क्रम होता है। किस अवस्था में नैतिक विकास हुआ है इसकी सीमा रेखा नहीं बाँधी जा सकती।

1. शैशवावस्था में नैतिक विकास (Moral Development during Infency)- शिशु एक स्वच्छ स्लेट की भाँति होता है जिस पर जो चाहे लिखा जा सकता है, उसी प्रकार शिशु के मन-पटल पर चाहे जैसे अनुभव तथा धारणाएँ विकसित की जा सकती हैं। वह न तो नैतिक होता है और न ही अनैतिक सही गलत का निर्णय भी वह नहीं ले सकता। उसमें स्वामित्व की भावना भी विकसित नहीं होती। यह भावना कालान्तर में विकसित होती है। इस अवस्था में सुखद अथवा दुःखद अनुभव के आधार पर अच्छे-बुरे की पहचान तथा पश्चाताप की भावना न होना शिशु के नैतिक विकास के लक्षण हैं।

2. पूर्व बाल्यावस्था में नैतिक विकास (Moral Development during pre Childhood)- तीन से छः वर्ष की आयु नैतिक व्यवहार की आधारशिला है। इस समय तक बालक यह नहीं जान पाता कि कोई कार्य क्यों अच्छा अथवा बुरा है। उसे केवल कार्य करने के लिए कहा जाता है। इस अवस्था में उसके नैतिक व्यवहार के लक्षण इस प्रकार विकसित होते हैं-
(1) औचित्य- अनौचित्य के कारण को न समझना 
(2) समूह का अनुकरण करना 
(3) न्याय और आदर को समझना 
(4) माता और पिता के पृथक्-पृथक् नैतिक स्तर को जानना।

3. किशोरावस्था में नैतिक विकास-किशोरावस्था में नैतिक विकास परिपक्व हो जाता है। बालक में अन्याय के प्रति विद्रोह उत्पन्न हो जाता है। गलत बात को वह सहन नहीं कर पाता। दल के 
आदर्शों को मानना वह अपना कर्त्तव्य समझता है। यौन सम्बन्धी नैतिकता के प्रति वह जागरूक हो जाता है। माता-पिता के दोहरे नैतिक स्तर को वह जानने लगता है। आत्म-लोचना करने और आत्म-निर्णय पर चलने की प्रति उसमें भावनाएँ पायी जाती हैं।

नैतिक विकास को प्रभावित करने वाले कारक (INFLUENCING FACTORS OF MORAL DEVELOPMENT)

अनेक कारणों से बालक नैतिक विकास प्रभावित होता है:-

1. परिवार (Family)- बच्चों के लिए शिक्षा, संस्कृति, अनुशासन, शिष्टता आदि सभी विषयों की प्राथमिक पाठशाला घर/परिवार है। घर-परिवार के वातावरण का प्रभाव बालक के नैतिक विकास पर पड़ता है। परिवार सांस्कृतिक प्रतिमानों को व्यावहारिक रूप में बच्चों को प्रदान कर सकता है। उन परिवारों में बच्चों का सकारात्मक नैतिक विकास तीव्रता से होता है जहाँ सदस्यों में आपस में सौहार्द हो, बच्चों को स्वतन्त्रतापूर्वक निर्णय लेने व अपने निर्णय के परिणामों का सामना करने का अवसर मिले, नैतिक कहानियाँ व साहित्य बच्चों को उपलब्ध हो, सांस्कारिक व्यवहारों को प्रदर्शित करने पर पुरस्कार मिले, बालकों को नैतिक रूप से बलवान बनाने का प्रयास किया जाए।

जिन परिवारों के सदस्य आपस में लड़ते-झगड़ते रहते हैं, अशान्ति मचाए रहते हैं, तो भी बालक के नैतिक विकास पर इसका प्रभाव पड़ता है। बालक अनुशासनहीन हो जाते हैं। अधिक सन्तान, अनपेक्षित सन्तान होने के कारण या अन्य किसी कारण से यदि बालक तिरस्कार होता है तो वह अक्सर अनैतिक कार्यों में लिप्त हो जाता है। बालक पर माता-पिता के अनैतिक चरित्र और आचरण-व्यवहार का बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है।

2. विद्यालय ( School)- बालक अपने परिवार से चारित्रिक और नैतिक गुणों को लेकर बीज रूप में विद्यालय में प्रवेश करता है। इन गुणों का अंकुरण और व्यापक सन्दर्भ में विकास विद्यालय के वातावरण में ही होता है। जिन विद्यालयों का वातावरण शुद्ध, सन्तुलित और सही होता है, जाति, धर्म, वर्ग के भेदभाव से परे होता है, राष्ट्रीय एकता और सद्भाव का पोषक होता है, वहाँ विद्यार्थियों का नैतिक विकास उत्तम तरीके से होता है। विद्यालय का दूषित भौतिक वातावरण, दूषित पाठ्यक्रम, कठोर अथवा अपर्याप्त अनुशासन, अध्यापकों का दुर्व्यवहार, मनोरंजन के उपयुक्त साधनों की अनुपलब्धता, आदि विद्यार्थियों के नैतिक विकास में बाधक सिद्ध होते हैं। बालक अपचारी हो जाते हैं।

3. बौद्धिक विकास (Development of intelligence)-नैतिक विकास और बौद्धिक विकास में सापेक्षिक सम्बन्ध होता है। वैलेन्टाइन और बर्ट ने निम्न बुद्धि को बाल अपराध का एक कारण माना है। कम बुद्धि वाले बालक सही और गलत में फर्क नहीं कर पाते। बुद्धिमान बालक सही-गलत का निर्णय शीघ्र ले लेते हैं।

4. साथी-समूह (Peer group)- मित्रों की संगति का प्रभाव बालक के नैतिक विकास पर पड़ता है। बालक अपने मित्रों एवं संगी-साथियों के साहचर्य में अच्छी-बुरी सभी बातें सीखता है। होली के अनुसार 34% और सिरिल बर्ट के अनुसार 18% बाल-अपराधी संगति के कारण बने।

5. यौन व्यवहार (Sex behavior)- जिन समाजों में सामाजिक नियन्त्रण शिथिल हो जाते हैं, वहाँ लोग उचित-अनुचित का ध्यान नहीं रखते और अनैतिक यौन सम्बन्ध स्थापित कर लेते हैं। ऐसे वातावरण में बालक भी बुरी आदतें सीखते हैं।

6. मनोरंजन सम्बन्धी कारक (Recreation factors)- अश्लील और गन्दे मनोरंजन के साधन बालकों के नैतिक विकास पर कुप्रभाव डालते हैं। स्वस्थ मनोरंजन नैतिकता का विकास करता है। अस्वस्थ मनोरंजन के साधनों की वृद्धि बालकों में अनैतिक प्रवृत्तियों को जन्म देती है; जैसे-सिनेमा के पर्दे पर प्रदर्शित नग्न चित्र, हत्या, लूट, मार-पीट आदि के दृश्य, टी. वी. पर अशोभन दृश्य, अश्लील साहित्य, दैनिक समाचार पत्र-पत्रिकाओं में निकलने वाली अपराधी घटनाएँ, धोखाधड़ी, नशाखोरी आदि के किस्से आदि।

बालकों के नैतिक विकास में अध्यापकों की भूमिका (ROLE OF A TEACHER IN MORAL DEVELOPMENT OF CHILDREN)

बालकों के नैतिक विकास में अध्यापकों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है, अतः अध्यापकों की भूमिका निम्नवत् देखी जा सकती है

(i) बालकों का मनोविश्लेषण करके अध्यापक इस बात का पता लगा सकते हैं कि उनकी अभिरुचियाँ, क्षमताएँ, योग्यताएँ या निर्योग्यताएँ कैसी हैं। इस प्रकार वह बालक को उचित दिशा और सही निर्देशन दे सकता है।

(ii) बालक को वांछित और अवांछित, सन्तोषजनक और असन्तोषजनक कार्य के प्रति स्वयं को सम्बद्ध करके उसका पथ प्रदर्शन कर सकता है। 

(iii) बालकों को नैतिक मूल्यों का पालन करने तथा सन्तुलित व्यक्तित्व विकसित करने के लिए प्रोत्साहित कर सकता है।

(iv) अध्यापक अपने प्रशासकों, विद्यार्थियों, साथियों, विद्यार्थियों के अभिभावकों तथा समाज के विभिन्न समुदाय के सदस्यों के साथ अच्छे और सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध बनाकर विद्यार्थियों के समक्ष अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत कर सकते हैं।

(v) अध्यापक का व्यक्तित्व विद्यार्थियों के लिए आदर्श व्यक्तित्व होता है। अतः उसे नैतिक मूल्यों से परिपूर्ण होना चाहिए। अध्यापक को ऐसे कार्य करने चाहिए जिनमें ईमानदारी, न्यायप्रियता, नियमबद्धता, सत्यता जैसे गुणों का परिचय मिलता हो।

(vi) प्रभावात्मक अनुशासन द्वारा बालक के नैतिक विकास को उन्नत किया जा सकता है। दमनात्मक अनुशासन से अध्यापक को बचना चाहिए, यह पूर्णतया अमनोवैज्ञानिक है।

(vii) अध्यापक पाठ्यसहगामी क्रियाओं द्वारा विद्यार्थियों में नैतिकता का विकास कर सकता है। इन क्रियाओं का आयोजन करने विद्यार्थियों को विभिन्न नियमों का पालन करना पड़ता है और समूह में विद्यार्थी एक-दूसरे के प्रति सहानुभूति, सहयोग, नेतृत्व, नैतिक मूल्यों पर अमल जैसे गुणों को अंगीकार करते हैं।

(viii) पुरस्कार और दण्ड का पक्षपात रहित ढंग से प्रयोग करके अध्यापक बालकों के नैतिक विकास में अपना रचनात्मक योगदान दे सकता है।

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